शतरंज
शतरंज


मेरी लाचारी और तुम्हारी बेवफ़ाई
खत्म सी लगती है अब तो
ये सरफ़रोशी रिश्ते की बुनाई
जो कभी सुनी थी कहानियों में
आज खेल भी कुछ ऐसे दिख रहे
जीवन के अनेक पहलू के तरानों में
क्या थी आज़माइश तुझे मेरे दिल से
पहेलियाँ बुझाते रहे अपने बेहिसाब से
मुझे क्यूँ पल भर में रुसवाई दिखाई तुमने
आख़िर क्यूँ मेरी खामोशी नहीं समझी तुमने
चलो ठीक! तुम जाओ हबीब संग अपने
इतना तो बताते जाओ जाते जाते मुझे
आके करीब क्यूँ की मेरी जग हँसाई तुमने
तुमसे मेरा कोई नाता ना रहना कोई मेल
फिर क्यूँ इश्क़ को बना दिया शतरंज का खेल
ना जोड़ते नाता कभी तुम कोई फर्क नहीं पड़ता
ये तिश्नगी की आग इस दिल में क्यूँ लगाई तुमने।।