श्रीमद्भागवत -१९०; ययाति चरित्र
श्रीमद्भागवत -१९०; ययाति चरित्र
श्री शुकदेवजी कहते हैं परीक्षित
नहुष के छ पुत्र थे
यति, ययाति,संयाति ,आयति,
वियति और कृति उनके नाम थे।
नहुष देना चाहते थे अपना
राज्य बड़े पुत्र यति को
उसने राज्य स्वीकारा न क्योंकि
परिणाम जनता था इसका वो।
राज्य एक ऐसी वस्तु है
दाव पेंच और प्रबंधन आदि में उसके
जो प्रवेश कर जाता वह
समझ न सके आत्मस्वरूप को अपने।
इंद्र पत्नी शचि से नहुष के
सहवास करने की चेष्टा करने से
इंद्र पद से गिराकर उसे
अजगर बना दिया था ब्राह्मणों ने।
तब राजा के पद पर ययाति बैठे
भाईओं को दिशाओं में नियुक्त कर दिया
देवयानी और शर्मिष्ठा से विवाह कर
पृथ्वी की रक्षा करने लगा।
देवयानी पुत्री शुक्राचार्य की
दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा
राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन
शुक्राचार्य ब्राह्मण और ययाति क्षत्रिय।
फिर ब्राह्मण कन्या और क्षत्रिय वर का
प्रतिलोम विवाह कैसे हुआ था
शुकदेव जी कहते हैं अब
सुनाता हूँ तुम्हे मैं ये कथा।
मानिनी कन्या, शर्मिष्ठा नाम की
दैत्यराज वृषपर्वा की एक थी
एक दिन गुरुपुत्री देवयानी और
सखिओं के संग टहल रही थी।
उद्यान में जलाशय के घाट पर
कन्यायों ने वस्त्र रखकर अपने
एक दुसरे पर जल फेंककर
क्रीड़ा कर रहीं वो आपस में।
उसी समय पार्वती के संग
बैलपर शंकर आ निकले
कन्याएं सकुचायें मन ही मन
सरोवर से निकलीं देख उन्हें।
अपने अपने वस्त्र पहन लिए
परन्तु शीघ्रता के कारण शर्मिष्ठा ने
अनजाने में अपने समझकर
वस्त्र पहन लिए देवयानी के।
आगबबूला देवयानी हो गयी
इसपर वो क्रोध के मारे
कहने लगी, अनुचित काम किया
यह बहुत ही इस दासी ने।
इसने मेरे वस्त्र पहने हैं
श्रेष्ठ भृगुवंशी ब्राह्मण हम हैं
और इसके पिता तो असुर हैं
वो हमारे शिष्य भी हैं।
इसपर भी इस दुष्टा ने
पहन लिया मेरे वस्त्रों को
शर्मिष्ठा क्रोध से तिलमिला उठी
देवयानी ने ऐसे गाली दी तो।
उसने कहा, इतना बहक रही क्यों
कुछ अपनी बात का पता भी है तुम्हे
कौआ, कुत्ते प्रतीक्षा करें जैसे
हमारे दरवाजों पर रोटी के लिए।
वैसे ही घरों की और हमारे
ताकते रहते तुम लोग हो
ऐसा कहकर, वस्त्र छीनकर
कुएं में धकेला देवयानी को।
शर्मिष्ठा के चले जाने पर वहां
संयोगवश राजा ययाति पहुँच गए
जल की आवश्यकता थी इसलिए
देवयानी को देख लिया कुएं में।
उस समय वह वस्त्रहीन थी
दुपट्टा देवयानी को दे दिया अपना
दया कर अपना हाथ देकर उसे
कुएं से बाहर निकाल लिया।
प्रेमभरी वाणी में कहा
ययाति से फिर देवयानी ने
'' मेरा हाथ पकड़ा आपने
कोई और पकडे न अब इसे।
दर्शन जो हुआ आपका
भगवान् का किया सम्बन्ध मानूँ उसे
पहले बृहस्पति के पुत्र कच ने
शाप दिया था ऐसा मुझे।
उसी के कारण ब्राह्मण मेरा
पाणिग्रहण नहीं कर सकता ''
शास्त्र प्रतिकूल होने के कारण
ययाति को सम्बन्ध ये अभीष्ट न था।
परन्तु उन्होंने देखा कि
उसकी और खिंच रहा मन उनका
और प्रारब्ध ने स्वयं ही
उनको ये उपहार है दिया।
इसलिए ययाति ने मान ली
बात जो देवयानी ने कही थी
उनके चले जाने पर देवयानी
रोती हुए शुक्राचार्य के पास गयीं।
शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था
पिता को सब कह सुनाया
शर्मिष्ठा के ऐसे व्यवहार पर
शुक्राचार्य का मन उचट गया।
पुरोहिताई की निन्दा करने लगे
अतः लेकर अपनी कन्या को
शहर से बाहर निकल गए
इस सब से रुष्ट होकर वो।
वृषपर्वा को जब पता चला
उन्हें चिंता हुई, कहीं गुरु जी
शत्रुओ
ं को जिता न दें
या शाप न दे दें मुझे कोई।
गुरु जी को प्रसन्न करने के लिए
उनके पीछे पीछे गए वे
और उनके पास जाकर
चरणों में गिर पड़े थे उनके।
आधे ही क्षण का क्रोध गुरु का
उन्होंने वृषपर्वा से कहा
पुत्री को नहीं छोड़ सकता मैं
पूरी करदो तुम उसकी इच्छा।
फिर मुझे लौट चलने में
आपत्ति नहीं है, कोई भी
ठीक है, कहकर वृषपर्वा ने
उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली।
तब देवयानी ने कहा, पिता मेरे
मुझे जिस किसी को भी दें
और जहाँ भी जाऊं मैं
शर्मिष्ठा मेरी सेवा में चले।
परिवार का संकट देख शर्मिष्ठा ने
देवयानी की बात स्वीकार कर ली
अपनी हजार सहेलिओं के संग
दासिओं समान उसकी सेवा करने लगी।
ययाति के साथ, शुक्राचार्य ने
देवयानी का विवाह कर दिया
शर्मिष्ठा को दासी के रूप में
देते हुए उनसे था ये कहा।
'' राजन, इसको अपनी सेज पर
नहीं आने देना तुम कभी ''
परीक्षित, कुछ ही दिनों बाद फिर
देवयानी पुत्रवती हो गयीं।
उसको पुत्रवती देखकर
एक दिन तब शर्मिष्ठा ने
याचना की राजा ययाति से
कि सहवास करें वो उससे।
यह प्रार्थना धर्मसंगत है
शर्मिष्ठा की पुत्र के लिए
शुक्राचार्य की बात याद रहते भी
ऐसा निश्चय किया उन्होंने।
कि समयपर प्रारब्ध के अनुसार ही
जो होना होगा हो जायेगा
यदु और तुर्वसु हुए थे
दो पुत्र देवयानी के।
द्रुह्यु, अनु और पुरु
शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुए
देवयानी को भी पता चल गया
ये पुत्र हैं मेरे पति के।
तब देवयानी क्रोध के मारे
अपने पिता के पास चली गयी
बिलकुल भी नहीं मानीं वो
ययाति ने जब मनाने की चेष्टा की।
शुक्राचार्य ने भी क्रोध में भरकर
ययाति को ऐसा कहा था
'' तू अत्यंत स्त्री लम्पट है
मंदबुद्धि और है झूठा।
जा तेरा ये शरीर अभी
बुढ़ापे से कुरूप हो जाये ''
ययाति कहें कि अनिष्ट ही है
आपकी पुत्री के लिए भी शाप ये।
उसपर शुक्राचार्य कहें, '' जाओ
अपनी जवानी अपनी इच्छा से
प्रसन्नता से तुम्हे दे दे जो
तुम बुढ़ापा बदल लो उससे।
राजधानी में आकर ययाति ने
बड़े पुत्र यदु से कहा कि
बेटा, मेरा बुढ़ापा स्वीकार करो
जवानी अपनी तुम दे दो मुझे।
क्योंकि अभी मैं विषयों से
तृप्त नहीं हुआ हूँ इसलिए
मैं तुम्हारी कुछ आयु लेकर
कुछ वर्षों तक भोग भोगूँ ये।
यदु ने कहा, पिता जी
बिना समय प्राप्त हुआ आपका
ये बुढ़ापा लेकर तो मैं
जीना ही नहीं चाहूंगा।
तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु ने भी
इसी प्रकार स्वीकार न किया ये
तब ययाति ने पुरु को
बुलवाकर पूछा था उससे।
पुरु अवस्था में छोटे थे
पर गुणों में सबसे बड़े थे
कहें पिता जी, परमपद की प्राप्ति
हो सकती पिता की कृपा से।
वास्तव में पुत्र का शरीर तो
दिया हुआ पिता का ही है
पिता के उपकारों को चुका सके
संसार में ऐसा कोई नहीं है।
मन की बात पिता की, बिना कहे
जो कर दे वो उत्तम पुत्र है
कहने पर श्रद्धा के साथ करे
उसे मध्यम पुत्र कहते हैं।
अश्रद्धा से आज्ञा पालन करे जो
वो अधम पुत्र होता है
जो आज्ञा पालन ही न करे
उसे पुत्र कहना ही भूल है।
बुढ़ापा स्वीकार किया पिता का
इस प्रकार कहकर पुरु ने
उसकी जवानी लेकर ययाति
विषयों का सेवन करने लगे।
बड़े बड़े दक्षिणा वाले
यज्ञपुरुष भगवान् हरि के
यज्ञों का यजन किया था
उस समय राजा ययाति ने।
एक हजार वर्ष बीत गए
उन्हें भोगों को भोगते
परन्तु ययाति इतने पर भी
तृप्त नहीं हो सका भोगों से।