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Ajay Singla

Classics

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श्रीमद्भागवत - १४८ ;गृहस्थों के लिए मोक्ष धर्म का वर्णन

श्रीमद्भागवत - १४८ ;गृहस्थों के लिए मोक्ष धर्म का वर्णन

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नारद जी कहें, हे युधिष्ठर

कुछ ब्राह्मणों की निष्ठा कर्म में

कुछ की निष्ठा है तपस्या में

कुछ की वेदों की स्वाध्याय और प्रवचन में।


कुछ की संपादन में आत्मज्ञान के

और कुछ की होती योग में

गृहस्थ पुरुष, ज्ञाननिष्ठ पुरुष को ही

हव्य, कव्य का दान करे।


धर्म का मर्म जानने वाला

अर्पण न करे श्राद्ध में, मांस का

स्वयं भी वो खाये न इसे

जिससे वध न हो किसी पशु का।


सद्धर्म पालन की जिसकी अभिलाषा

इससे बढ़ कर कोई धर्म नहीं कि

किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाये

किसी प्राणी को, मन, वाणी, और शरीर से।


विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा, और छल

पांच शाखाएं अधर्म की हैं ये

धर्मज्ञ पुरुष अधर्म के समान ही

इन सबका भी त्याग करे।


.धर्मबुद्धि से करने पर भी जो 

बाधा पड़े अपने धर्म में

ऐसे कर्म को ज्ञानी सभी

पुरुष का विधर्म हैं कहते।


किसी अन्य के द्वारा

अन्य पुरुष के लिए

उपदेश किया हुआ धर्म जो

उसे परधर्म हैं कहते।


पाखण्ड या दम्भ का नाम उपमा है

उपधर्म भी कहते हैं जिसे

छल है अगर शास्त्रों के वचनों का

दुसरे प्रकार का अर्थ कोई कर दे।


अपने आश्रम के विपरीत ही

कोई मनुष्य जो स्वेच्छा से

जिसको वो धर्म मान ले

उसको हम आभास हैं कहते।


धर्मात्मा पुरुष निर्धन भी हो तो

शरीर निर्वाह या धर्म के लिए

धन प्राप्त करने की वो 

कोई भी चेष्टा न करे।


निष्क्रिय संतोषी पुरुष जो

आत्मा में रमन करते हैं

जो सुख मिलता है उनको

कामी लोग न पा सकते हैं।


जो ब्राह्मण संतोषी नहीं है

लोलुपता के कारण इन्द्रियों की

उनके तेज, विद्या, यश क्षीण हों

और खो बैठें विवेक भी।


भूख प्यास जब मिट जातें हैं 

कामना ख़त्म हो खाने पीने की

और काम पूरा कर अपना

शांत हो जाए क्रोध भी।


परन्तु यदि मनुष्य जीत ले

पृथ्वी की समस्त दिशाओं को

लोभ का उसके अंत न हो 

भोगने के बाद भी उनको। 


धर्मराज, जीत लेना चाहिए

संकल्पों के त्याग से, काम को

क्रोध को, कामनाओं के त्याग से

अर्थ को अनर्थ समझकर, लोभ को।


और तत्व के विचार से

जीत लेना चाहिए भय को

अध्यात्म विद्या से शोक, मोह पर

विजय प्राप्त करे पुरुष वो।


संतों की उपासना से दम्भ पर

मौन द्वारा विघ्नों पर योग के

निश्चेष्ट कर शरीर, प्राण आदि को

हिंसा पर वो विजय प्राप्त करे।


अधिभौतिक दुःख को दया के द्वारा

अधिदैविक वेदना को समाधि से

योगबल से आध्यात्मिक दुःख को

सात्विक भोजन और संग से निद्रा को जीत ले।


सत्वगुण के द्वारा रजोगुण, तमोगुण पर

सत्वगुण पर उपरति के द्वारा

गुरुदेव की भक्ति से इन सभी दोषों पर

साधक विजय प्राप्त कर सकता।


गुरुदेव साक्षात भगवान् हैं

और शास्त्रों का आदेश ये

कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर

यह छ हमारे शत्रु हैं।


विजय प्राप्त कर ली जाये

इन छ शत्रुओं पर अपने

अथवा वश में हो जाएं

पांच इन्द्रियां और मन, छ ये।


ऐसा होने पर भी यदि उन नियमों से

भगवान का ध्यान, चिंतन आदि की 

प्राप्ति नहीं होती तो उन्हें

केवल श्रम ही श्रम समझाना चाहिए।


दुष्ट पुरुषों के कर्म जो

श्रोत -स्मार्त भी होते

वो कल्याणकारी न हों

बल्कि उससे उल्टा फल देते।


जो मनुष्य उद्यत हो

मन पर विजय प्राप्त करने के लिए

आसक्ति के परिग्रह को त्याग कर

वो संन्यास को ग्रहण करे।


एकांत में अकेला रहे वो

और बस भिक्षा वृति से

परिमित भोजन करे वो

अपने शरीर निर्वाहमात्र के लिए।

 

आसन बिछाए पवित्र भूमि पर

ओंकार का जाप करे वो

इधर उधर जाने से रोके चित को

जब तक उसका चित शांत न हो।


सब वृतियां शांत हो जाएं

काम कामनाएं हट जाएं जब

फिर मगन हो जाता है

चित ब्रह्मानंद में तब।


कर्मत्यागि गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी

वानप्रस्थ जो गांव में रहे

और इन्द्रियलोलुप सन्यासी

कलंक हैं ये चारों आश्रम के।


व्यर्थ ही आश्रमों का ढोंग करें ये

मोहित हो भगवान् की माया से

तरस खाकर उन मूढ़ों पर

उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिए।


उपनिषदों में कहा गया ये

कि शरीर रथ है, इन्द्रियां घोड़े हैं

इन्द्रियों का स्वामी मन लगाम है

शब्दादि विषय मार्ग हैं।


बुद्धि सारथि, चित बांधने की रस्सी

धूरि दस प्राण हैं इसकी

धर्म और अधर्म दो पहिये

और अभिमानी जीव इसका रथी।


ओंकार उस रथी का धनुष

शुद्ध जीवात्मा वाण हैं उसके

परमात्मा लक्षय में ओंकार के द्वारा

आत्मा को लीन कर देना चाहिए।


राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह

भय, अपमान, छल, तृष्णा, भूख ये

हिंसा,प्रमाद और नींद सब

हैं ये शत्रु जीव के।


मनुष्य शरीर रुपी ये रथ

अपने वश में है जब तक

और इन्द्रियां, मन आदि इसके साधन

अच्छी दशा में विद्यामान तभी तक।


श्री गुरुदेव की सेवा पूजा से

ज्ञान लेकर भगवान के आश्रय में 

नाश करे वो इन शत्रुओं का

फिर शरीर का परित्याग वो कर दे।


नहीं तो प्रमाद होने पर तनिक भी

दुष्ट घोड़े ये इन्द्रियों के

और उसका मित्र बुद्धिरूप सारथि

जीव को ले जाएं विषयों में।


विषयरूपी लूटेरे, वो डाकू

सारथि और घोड़ों के सहित में

मृत्यु के अत्त्यन्त अंधकारमय

कुएं में गिरा देते संसार के।


वैदिक धर्म जो विषयों में ले जाएं

प्रवृत्तिपरक कहते हैं उनको

दुसरे जो विषयों से लौटाएं

निवृत्तिपरक हैं कर्म वो।


प्रवृत्तिपरक कर्म मार्ग से

प्राप्ति होती जन्म मृत्यु की

और निवृत्तिपरक कर्मों द्वारा

परमात्मा की होती प्राप्ति।


श्येनयागादि हिंसामय कर्म

अग्निहोत्र, पूर्णमास, सोमयाग आदि हैं

द्रव्यमय ये कर्म हैं और

ईष्ट सब ये कहलाते हैं।


देवालय, बगीचा, कुआँ आदि

 बनवाएं या प्याऊ लगवाएं

ये सब जो कर्म हैं

वे पूर्त्तकर्म कहलाएं।


ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं

और सकामभाव से युक्त होने पर

अशांति का कारण बनते हैं

चित की शांति न मिले इन्हें करकर।


प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरने पर

पास जाये धूमाभिमानी देवताओं के

फिर अभिमानी देवताओं के पास से

पहुँच जाता है चंद्रलोक में।


वहां के भोग समापत हों जब

क्षीण होकर पितृयान मार्ग से

वीर्य के रूप में परिणत होकर

संसार में पुनः जन्म ले।


हे युद्धिष्ठर अंत्येष्टि पर्यन्त तक

गर्भधारण से लेकर जो

सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं

द्विज हम कहते हैं उनको।


निवृत्तिपरायण पुरुष जो

प्राण को ब्रह्म में लीन कर देता

अभिमानी देवताओं से होता हुआ

ब्रह्मलोक में वो पहुँचता।


वहां के भोग समापत होने पर

सूक्षम में लीन कर अपने को

तेजय हो फिर शुद्ध आत्मा हो

मोक्ष पद प्राप्त करता वो।


देवयान मार्ग कहते इसे

चक्र में न पड़े जन्म मृत्यु के

वेदोक्त कर्म दोनों ही

पितृयान और देवयान ये।


हे युद्धिष्ठर, पूर्वजन्म में

महाकल्प में इससे पहले के

मैं एक गंधर्व था और

बड़ा सम्मान था मेरा गंधर्वों में।


अपबर्हण मेरा नाम था

सुगंध निकला करती शरीर से 

देखने में भी मैं अच्छा लगता

प्रेम करती थी स्त्रियां मुझे।


सदा मैं प्रमाद में रहता

और विलासी भी बहुत था

एक बार एक ज्ञानसत्र हुआ

देवताओं और प्रजापतिओं का।


बुलाया अप्सराओं, गंधर्वों को

गाण करने के लिए उन्होंने

जानता था मैं कि संतों का समाज है

गाण हो, जो प्रभु की लीलाएं।


फिर भी लेकिन गान करता हुआ

स्त्रिओं के साथ, उन्मक्त की तरह

वहां पहुंचा, तो देवताओं ने

देखा, ये हमारा अपमान कर रहा।


अपनी शक्ति से उन्होंने

मुझको ये शाप दिया कि

शीघ्र तुम शुद्र हो जाओ

सौंदर्य, सम्पति नष्ट हो जाये।


उनके शाप से दासी का पुत्र हुआ

किन्तु किये हुए शुद्र के जन्म में

महात्माओं के सत्संग, सेवा से

ब्रह्मा का पुत्र हुआ दूसरे जन्म में।

 

हे युधिष्ठर इस मृत्यु लोक में

भाग्य प्रसंशनीय तुम लोगोँ का

मनुष्य का रूप धारण कर

घर में हैं साक्षात् परमात्मा।


सारे संसार के ऋषि मुनि जो

बार बार दर्शन करने को

चारों और से यहाँ हैं आते

निहारने इन श्री कृष्ण को।


नारद जी से इस प्रकार सुन

युद्धिष्ठर आनन्दित हो गए

प्रेम विह्वल होकर वो

 नारद और श्री कृष्ण की पूजा करें।


फिर युद्धिष्ठर और श्री कृष्ण से

देवर्षि नारद ने विदा ली

श्री कृष्ण परब्रह्म हैं ये सुनकर

युधिष्ठर के आश्चर्य की सीमा न रही।


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