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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१३२; अदित्ति और दित्ती की संतानों की तथा मरुदगणों की उत्पत्ति

श्रीमद्भागवत -१३२; अदित्ति और दित्ती की संतानों की तथा मरुदगणों की उत्पत्ति

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शुकदेव जी कहें, आठ संतानें हुईं

सविता की पत्नी पृशनि से

तीन पुत्र और एक कन्या हुई

भग की पत्नी सिद्धि से।


धाता की चार पत्नियां

एक एक पुत्र हुआ सबसे

पुरीष्य नामक पांच अग्नियों का

जन्म हुआ विधाता पत्नी क्रिया से।


चर्षणी नाम वरुण की पत्नी का

पुनः जन्म लिया उनसे भृगु जी ने

महायोगी वाल्मीकि जी भी

वरुण जी के ही पुत्र थे।


उर्वशी को देख मित्र और वरुण

दोनों का वीर्य संखलित हो गया

उसे घड़े में रख दिया था उससे

अगस्त्य और वशिष्ठ का जन्म हुआ।


मित्र की पत्नी रेवती

तीन पुत्र उत्पन्न हुए उससे

जयंत, ऋषभ, मीढवान पुत्र हुए

इंद्र की पत्नी शचि से।


भगवान विष्णु वामन के रूप में

उत्पन्न हुए अदित्ति के गर्भ से

तीन पग पृथ्वी मांग कर

उन्होंने तीनों लोक नाप लिये।


उनकी पत्नी का नाम कीर्ति

पुत्र हुआ उनका बृहच्छ्लोक नाम का

कश्यप की दूसरी पत्नी दित्ती की

संतान का अब मैं वर्णन करता।


दैत्यों और दानवों के वन्दनीय

दो पुत्र हुए दित्ती के

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष

ये दोनों उनके नाम थे।


हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु थी

चार पुत्र हुए थे उसके

अह्लाद, अनुह्लाद, ह्लाद और प्रह्लाद

ये नाम थे उन चारों के।


सिंहिका नाम की एक बहन थी उनकी

विवाह हुआ विप्रचिति से

दोनों से उत्पन्न हुए थे

पुत्र उनके राहु नाम के।


पंचजन नामक पुत्र हुआ था

संह्लाद की पत्नी कृति से

वातापि और इल्वल हुए

ह्लाद की पत्नी धमनि से।


वातापि को पकाकर खिला दिया

इल्वल ने अगस्त्य के आतिथ्य में

वाष्कल, महिषासुर पुत्र हुए

अनुह्लाद की पत्नी सूमर्या से।


प्रह्लाद का पुत्र था विरोचन

उसकी पत्नी का देवी नाम था

उनसे दैत्यराज बलि का जन्म हुआ

अशना नाम उनकी पत्नी का।


उनके वाणादि सौ पुत्र हुए

वाणासुर भी पुत्र बलि का

भगवान शंकर की आराधना करके वो

मुखिया बना उनके गणों का।


भगवान शंकर आज भी उसके

नगर की रक्षा करने के लिए

और कृपा करने को उसपर

उसके पास ही हैं रहते।


हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के अतिरिक्त

उनचास पुत्र और थे दित्ती के

उनको मरुदगण कहते हैं

वो सब निसंतान ही रहे।


देवता बनाया अपने समान ही

उनको देवराज इंद्र ने

परीक्षित पूछें, कैसे मरुदगण 

असुर भाव छोड़, देवता बने।


सूत जी कहते हैं, शौनक जी

शुकदेव जी ने परीक्षित से तब कहा

हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु को मारा जब

पक्ष ले विष्णु ने इंद्र का।


दित्ती उद्दीप्त हो शोक की आग में

क्रोध में जलकर ऐसा सोचे वो

इंद्र क्रूर और निर्दयी है

मरवा डाला अपने भाईओं को।


उस पापी को मारने के लिए

उपाय कोई करूं मैं ऐसा

जिससे एक पुत्र पैदा हो

घमंड चूर करे जो इंद्र का।


निरंतर अपने पति कश्यप को

प्रसन्न करने में लग गयीं वो

' तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा '

कश्यप कहें, सेवा से मोहित हो।


दित्ती से कहें ' जो इच्छा हो मांग लो '

दित्ती कहे ऐसा पुत्र मुझे दो

मेरे पुत्रों को मरवाया जिसने

मार डाले वो उस इंद्र को।


खिन्न हो गए मुनि कश्यप जी

दित्ती की बात सुन, पछताने लगे

अधर्म का अवसर आया जीवन में

मन ही मन वो ये कहने लगे।


स्त्रीरूपिणी माया ने कर लिया

वश में अब तो मेरे चित को

नरकों में गिरना पड़ेगा अब

बार बार धिक्कार है मुझको।


वर मांगने को कह चूका हूँ

झूठी न होनी चाहिए बात ये

परन्तु देवराज इंद्र भी

वध करने योग्य नहीं हैं।


सोच कर युक्ति कोई मन में

उनहोनें फिर कहा दित्ती से

पालन करना होगा एक वर्ष

मेरे बतलाये व्रत का तुम्हे।


पुंसवन नाम के ये व्रत है

विधिपूर्वक पालन यदि करोगी

इंद्र को मारने वाले पुत्र की

अवश्य तुम्हें प्राप्ति होगी।


परन्तु यदि नियमों में त्रुटि हुई

तो फिर तुम्हारा वो पुत्र

देवताओं से वैर न करे

बन जायेगा वो उनका मित्र।


दित्ती कहे व्रत के पालन को

बतलाइये मुझे क्या करना चाहिए

कश्यप कहें, व्रत में किसी प्राणी को

मन, वाणी से ना सताएं।


किसी को शाप या गाली ना दें

नख न काटें, झूठ न बोलें

अशुभ वस्तु का स्पर्श न करें

क्रोध न करें, सदा शुद्ध रहें।


जूठा या मांस युक्त भोजन

न खाएं इस व्रत में

प्रात:काल ब्राह्मण, लक्ष्मी, नारायण

और पति को पूजें अपने।


एक वर्ष तक बिना किसी त्रुटि के

अगर पालन करो इस व्रत का

तब उत्पन्न तुम्हारी कोख से

इंद्रघाती एक पुत्र होगा।


परीक्षित, दित्ती बड़ी दृढ निश्चय थी

वीर्य धारण कर कश्यप जी का

पालन करने लगी कश्यप के

बताये हुए सारे नियमों का।


पता चला जब इंद्र को तो

दित्ती का अभिप्राय जानकर

वेश बदल सेवा करने लगे

आकर वो दित्ती के आश्रम पर।


प्रतिदिन वन में जाकर इंद्र

फूल, फल, कुशा, दूब थे लाते

समर्पित करते दित्ती को सब ये

सोचें, त्रुटि पकड़ें व्रत पालन में।


जब व्रत में कोई त्रुटि न मिली

चिंता बहुत हुई तब उनको

कैसे सफल मनोरथ करूँ अपना

उपाय सोचने लगे कोई वो।


बहुत हो गयीं थीं दुर्बल

दित्ती व्रत पालन करते हुए

विधाता ने भी डाल दिया उन्हें

अपनी रची माया के मोह में।


एक दिन संधया के समय वो

जूठे मुँह, बिना आचमन किये

बिना पैर धोये सो गयीं

इंद्र ने देखा, अवसर ये।


योगबल से झटपट इंद्र ने

प्रवेश किया दित्ती के गर्भ में

गर्भ के सात टुकड़े कर दिए

मार कर अपने वज्र से।


जब गर्भ रोने लगा तो

मत रो, मत रो कहकर उसको

फिर से वज्र से बाँट दिया

सात टुकड़ों में एक एक को।


उनके टुकड़े जब कर रहे इंद्र

हाथ जोड़ कर वे कहने लगे

तुम्हारे भाई मरुदगण हैं हम

तुम क्यों मार रहे हमें।


इंद्र ने कहा फिर मरुदगणों से

अच्छी बात, तुम मत डरो अब

परीक्षित, इतने टुकड़े होने पर भी 

नहीं मरा दित्ती का वो गर्भ।


इंद्र ने भी उन मरुदगणों को

सोमपायी देवता बना दिया

दित्ती की आँख खुली तो

तब उन्होंने भी ये देखा।


देखा कि अग्नि समान तेजस्वी

उनचास बालक साथ इंद्र के

दित्ती सोचे , ये क्या रहस्य

पूछें इंद्र को सम्बोधन करके।


कहें इंद्र, संकल्प किया था

मैंने तो एक ही पुत्र के लिए

मुझे तुम सच सच बतलाओ

उनचास पुत्र फिर कैसे हो गए।


इंद्र बोलें, हे माता मुझे

पता चला व्रत के उदेश्य का

पास आया तुम्हारे इसलिए

स्वार्थ सिद्ध करने मैं अपना।


तुम्हारे व्रत में त्रुटि होते ही

मैंने गर्भ के टुकड़े कर दिए

पहले सात टुकड़े किये मैंने

फिर उनचास मैंने कर दिए।


निश्चय किया मैंने ऐसा

परम आश्चर्यमय घटना देख ये

भगवान की उपासना की यह

कोई सवभाविक सिद्धि है।


माता! आप मेरी पूज्य हो

दुष्टता की मूर्खतावश मैंने

मैंने जो अपराध किया है

उसको आप कृपाकर क्षमा करें।


बड़े सौभाग्य की बात है

गर्भ खण्ड खण्ड हो जाने पर भी

फिर से जीवित हो गए ये

एक प्रकार से मर जाने पर भी।


शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित

शुद्धभाव से तब इंद्र के

दित्ती थी संतुष्ट हो गयीं

इंद्र, मरुदगण स्वर्ग चले गए |


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