Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer
Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer

Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत - १३८ ;हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लाद जी के वध का प्रयत्न

श्रीमद्भागवत - १३८ ;हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लाद जी के वध का प्रयत्न

5 mins
197


नारद जी कहें, युधिष्ठर

शुक्राचार्य जो पुरोहित दैत्यों के

शण्ड और अमर्क नामक 

शुक्राचार्य के दो पुत्र थे।


राजमहल के पास रहकर वो

पढ़ाते प्रह्लाद और दैत्य बालकों को

राजनीती, अर्थनीति आदि की

शिक्षा देते थे वो उनको|


प्रह्लाद गुरु जी का पढ़ाया पाठ

ज्यों का त्यों सुना देते थे

किन्तु मन ही मन में उसको

अच्छा नहीं समझते थे वे।


क्योंकि मूल आधार उस पाठ का

झूठा आग्रह था अपने पराये का

एक दिन ऐसे ही हिरण्यकशिपु ने

पुत्र को गोद में लेकर पूछा।


हिरण्यकशिपु कहें, बेटा बताओ

कौन सी बात अच्छी लगती तुम्हें

प्रह्लाद कहें , 'मैं और मेरे' से

संसार के प्राणी उदिग्न हैं रहते।


ऐसे प्राणियों के लिए ये ठीक है

अँधेरे कुँए समान घर को छोड़कर

वन में चले जाएं और वहां

ग्रहण करें श्री हरि की शरण।


नारद जी कहें कि प्रह्लाद के मुख से

प्रशंशा को सुन शत्रु पक्ष की

हिरण्यकशिपु हंसा और कहा कि बुद्धि

बिगड़ गयी लगती बच्चों की।


दूसरों के बहकावे में जब

वो बच्चे आ जाया करते

जान पड़ता गुरु जी के घर पर

विष्णु के पक्ष के ब्राह्मण कुछ रहते।


भली भांति शिक्षा दो बालक को

बुद्धि बहकाने न पाए जिससे

गुरु जी के घर पहुंचा दिया

तब प्रह्लाद को वहां दैत्यों ने।


पुचकारकर पुरोहितों ने पूछा

तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हुई

किसी ने तुम्हे बहका दिया या

स्वयं ही ये ऐसी हो गयी।


प्रह्लाद कहें, कृपा करें भगवान जब

पापबुद्धि नष्ट हो मनुष्यों की

अपने पराये का भेदभाव जो

इस पशु बुद्धि के कारण ही।


वही परमात्मा यह आत्मा है

तत्व जानना बहुत कठिन है उसका

आप लोगों के शब्दों में

वही मेरी बुद्धि बिगाड़ रहा।


गुरु जी मेरा चित जो है ये

 अलग होकर वो इस संसार से

बरबस ही खिंचा चला जाता

उन परमात्मा के चरणों में।


प्रह्लाद जी अपने गुरु जी से

इतना कहकर चुप हो गए

वो सब पुरोहित बेचारे

राजा के सेवक, पराधीन थे।


सभी के सभी डर गए थे 

झिड़क कर प्रह्लाद से कहा 

यह दुर्बुद्धि बालक हमारी 

कीर्ति में कलंक लगा रहा। 


उपयुक्त होगा दण्ड ही इसके लिए 

डांटा और धमकाया प्रह्लाद को 

अर्थ, धर्म और काम सम्बन्धी 

शिक्षा दी वही फिर से उसको। 


जब देखा प्रह्लाद ने जान लीं 

साम, दान, भेद, दण्ड की बातें 

तब गुरु जी बालक प्रह्लाद को 

हिरण्यकशिपु के पास ले गए। 


पिता को प्रणाम किया प्रह्लाद ने 

पिता ने लगाया उन्हें गले से 

ह्रदय उनका आनंद से भर रहा 

राजा ने फिर पूछा पुत्र से। 


गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की 

बात सुनाओ अच्छी सी उसमें से कोई 

प्रह्लाद कहें कि नौ भेद हैं 

भक्ति के विष्णु भगवान की। 


उनके गुण लीला का श्रवण 

उनका कीर्तन, रूप का स्मरण 

चरणों की सेवा, पूजा, अर्चा, वंदन 

दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। 


प्रभु के प्रति समर्पण भाव से यदि 

भक्ति की जाये नौ प्रकार की यह 

प्रह्लाद जी कहें कि उसी को 

उत्तम अध्ययन समझता हूँ मैं। 


यह बात सुनकर प्रह्लाद की 

होंठ फड़कने लगे हिरण्यकशिपु के 

उसने गुरु पुत्रों से कहा कि 

नीच ब्राह्मण, कैसी शिक्षा ये। 


मेरी इच्छा की परवाह न करके 

इस बच्चे को कैसी शिक्षा दी 

लगता है हमारे शत्रुओं के 

आश्रित है तू अवश्य ही। 


गुरुपुत्र कहें, आप का पुत्र ये 

कह रहा है जो कुछ भी 

इसकी स्वाभाविक बुद्धि है 

मेरे या किसी के बहकाने से नहीं। 


नारद जी कहें, हे युधिष्ठर तब 

हिरण्यकशिपु ने पूछा प्रह्लाद से 

गुरुमुख से नहीं आई ये तो 

खोटी बुद्धि ये आई कहाँ से। 


प्रह्लाद कहें कि हे पिता जी 

स्वार्थ, परमार्थ हमारे विष्णु ही 

पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती 

उन्हीं की प्राप्ति से ही। 


स्पर्श कर लेती बुद्धि जिनकी 

भगवान के चरणकमलों का 

सर्वथा नाश हो जाता उनके 

जन्म मरण रूप अनर्थ का। 


परन्तु स्नान नहीं करते जो 

महात्माओं के चरणों की धुल से 

स्पर्श भगवान के चरणों का 

उनकी बुद्धि न कर सके। 


बात सुनकर प्रह्लाद जी की ये 

क्रोध में भरकर हिरण्यकशिपु ने 

अपनी गोद से उठाकर 

भूमि पर पटक दिया उन्हें। 


नेत्र लाल हुए क्रोध के मारे 

कहने लगा वो दैत्यों से 

इसे यहाँ से बाहर ले जाओ 

और तुरंत मार डालो इसे। 


देखो तो सही, इसके चाचा को 

मार डाला था जिस विष्णु ने 

उसी मेरे शत्रु विष्णु के 

चरणों की पूजा करता ये। 


हो न हो इसके रूप में 

लगता है विष्णु ही आ गया 

पांच वर्ष में माता पिता का 

वात्सल्य स्नेह इसने भूला दिया। 


दूसरा भी अगर औषध के समान कोई 

भलाई करे, तो पुत्र ही है वो 

रोग के समान वह भी शत्रु है 

पुत्र अहित करने लगे तो। 


शरीर के ही किसी अंग से जो 

हानि होती हो सारे शरीर को 

शरीर की भलाई के लिए ही 

काट डालना चाहिए उसको। 


बाना पहनकर यह स्वजन का 

शत्रु ही आया है मेरा कोई 

मार डालो तुम लोग अब 

इसको उपाय से किसी भी। 


हिरण्यकशिपु ने इस प्रकार जब 

आज्ञा दी थी दैत्यों को तो वो 

जोर से चिल्लाने लगे और 

शूल से घाव करें प्रह्लाद को। 


प्रह्लाद का चित परमात्मा में लगा 

सारे प्रहार निष्फल हुए इसलिए 

हिरण्यकशिपु को बहुत शंका हुई 

और उपाय किये मारने के लिए। 


कुचलवाया बड़े बड़े हाथियों से 

विषधर सांपों से डसवाया 

कृत्या राक्षसी उत्पन्न कराइ 

पहाड़ की चोटी से गिराया। 


शंबरासुर ने माया का प्रयोग किया 

बंद किया अँधेरी कोठरी में 

डलवाया समुन्द्र में, आग में 

और विष पिलाया था उन्हें। 


बाल भी बांका न कर सका जब 

अपनी विवशता देख बड़ी चिंता हुई 

सोचे, बालक ये किसी से न डरता 

और ना मृत्यु होती उसकी। 


इसकी शक्ति की थाह नहीं है 

यह सोच चेहरा उतर गया 

शण्ड और अमर्क ने एकांत में 

ले जाकर हिरण्यकशिपु से ये कहा। 


अकेले ही तीनों लोकों पर 

आपने विजय प्राप्त है कर ली 

न सोचें भलाई या बुराई 

बच्चे का खिलवाड़ ये सभी। 


पिता शुक्राचार्य न आ जाएं जब तक 

तब तक भाग न जाये ये कहीं 

इसीलिए बाँध रखिये इसे 

वरुण के पाशों में अभी। 


प्राय: ऐसा होता है कि 

अवस्था की वृद्धि के साथ ही 

और गुरुजनों की सेवा में 

बुद्धि सुधर है जाया करती। 


गुरुजनों की सलाह मानकर 

'' चलो ठीक है'',हिरण्यकशिपु कहे 

पुरोहित ले गए पाठशाला उसे 

धर्म अर्थ की शिक्षा देने लगे। 


शिक्षा वो प्रह्लाद को अच्छी न लगती 

एक दिन जब गुरु जी बाहर गए थे 

समव्यस्क बालकों ने प्रह्लाद को 

बुलाया था खेलने के लिए। 


प्रह्लाद जी परम ज्ञानी थे 

अपने पास बुलाया उन सब को 

मधुर वाणी से मुस्कुराकर 

उपदेश देने लगे वो उनको। 


वो सभी अभी बालक ही थे 

उनकी बुद्धि दूषित न हुई थी 

उपदेश से विषय भोगी पुरुषों के 

और आदर था उनका प्रह्लाद के प्रति। 


खेलकूद छोड़ दिया और 

उनके वे चारों और बैठ गए 

करुणा और मैत्री के भाव से 

प्रह्लाद जी तब उनसे कहें। 


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics