पुरुष के पास मायका नहीं होता
पुरुष के पास मायका नहीं होता
पुरुष के पास मायका नहीं होता
नहीं होताकोई ऐसा आँगन
जहाँ बिखेर सकें अपनी सारी थकान,
जहाँ बेझिझक लोट पोट हो सकें
एक हारे हुए बच्चे की तरह।
क्या उनके हिस्से आती है
वो ममता भरी पुकार
,
"थक गए हो ना, थोड़ा आराम कर लो।"
वे तो चलते रहते हैं,
युगों से, अनवरत,
कभी पुत्र बनकर कर्तव्यों की राह पर,
कभी पति बनकर रिश्तों की नाव चलाते,
कभी पिता बनकर परिवार का वटवृक्ष बनते।
उनके कंधों पर टिकी होती हैं
असंख्य उम्मीदें, आकांक्षाएं,
जिम्मेदारियों का भार,
जो कभी कम नहीं होता।
वे सहते हैं अनगिनत दर्द,
छुपाते हैं अपनी थकान ,
बन जाते हैं कवच
अपने परिवार के लिए।
उनके पास वक्त नहीं होता
अपनी पीड़ा को सुनने का,
अपने सपनों को जीने का,
खुद के लिए ठहरने का,
एक गहरी सांस लेने का।
उन्हें सदा से सिखाया जाता है मजबूत बनना,
रोना नहीं, टूटना नहीं,
सिर्फ आगे बढ़ते जाना
पर क्या वे नहीं थकते?
क्या उनके दिल में नहीं उठती
एक शांत आँगन की पुकार?
एक ममता भरी स्पर्श की चाह?
क्या वे कभी नहीं चाहते
कि कोई कहे,
"तुम भी इंसान हो,
थोड़ा आराम कर लो।"
पर पुरुषों के पास मायका नहीं होता,
इसलिए वे चलते रहते हैं,
निरंतर, अनवरत।
