सच राख से उठकर मुस्कुराएगा
सच राख से उठकर मुस्कुराएगा
वक़्त की सुईयाँ जैसे थम सी जाएँ,
साँसों का शोर भी लगे चीखो सा,
अकेलापन तब,
एक गहरा कुआँ बन जाए।
सच पर झूठ विजय पाये,
धुंध छा जाए आँखों के आगे,
न्याय की राहें,
पथरीली बन जाएँ,
विश्वास तब,
एक सूखा पत्ता बन जाए।
इस निर्मल पावन मन पर,
जब कलंक के घन छायें,
भीतर का सूरज,
ग्रहण से घिर जाए,
निर्दोषिता तब,
एक घायल परिंदा बन जाए।
अन्यायों की आंधी से,
कान उठें जब तेरे डोल,
हर शब्द एक प्रहार लगे,
हर चुप्पी एक शाप लगे,
अंतरात्मा तब,
एक चीखती ख़ामोशी बन जाए।
फिर भी,
आँखों में रखना एक दीया रोशनी,
दिल में रखना एक उम्मीद किरण,
क्योंकि रात कितनी भी गहरी हो,
और सच, राख से उठकर,
फिर से मुस्कुराएगा।
