लगाव का भ्रम
लगाव का भ्रम
खोखला करती रही लगातार दीमक उसे,
लकड़ी भ्रम में रही,
की लगाव ज्यादा है।
दिन बीते, रातें गुजरी,
अनवरत कुतरन, भीतर ही भीतर,
एक मौन युद्ध,
लकड़ी बेखबर
लकड़ी बैठी रही,
अभिमान से भरी,
समझती रही,
लगाव है गहरा।
रेशे कमजोर हुए,
ताकत क्षीण,
पर दिखावा अडिगता का,
ऊपर से पॉलिश, चमक बरकरार,
शायद यही प्रेम है,
लकड़ी सोचती।
हर गुजरते दिन,
वो और कमजोर होती गई,
अंदर ही अंदर,
रेत बन झरती गई।
फिर एक दिन,
हवा का झोंका आया,
या किसी ने बस हाथ लगाया,
और वो धराशायी,
टूटकर बिखर गई,
दीमक का सच सामने आया,
लगाव नहीं,
ये तो विनाश था।
पर वो,
अपनी अकड़ में,
खोखलेपन को,
महसूस ना कर पाई।
दीमक की चालाकी,
उसकी समझ से परे,
वो तो बस,
लगाव के भ्रम में जीती रही।
टूट कर बिखर गई,
मिट्टी में मिल गई,
लगाव का भ्रम भी,
धूल बन उड़ गया।
और दीमक,
विजयी,
शांत,
अपने काम में लगी रही,
किसी और लकड़ी की तलाश में।
