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Chandresh Kumar Chhatlani

Classics

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Chandresh Kumar Chhatlani

Classics

ब्रह्मांड का रहस्यगीत

ब्रह्मांड का रहस्यगीत

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खा कर कोई जादुई टिकिया,

तुम सिकुड़ गई, अणु-सी बिटिया।

पहुँचे उस छोर पर, जहाँ समय है ठहरा,

ब्रह्मांड बुनता स्वयं को, पल-पल फड़फड़ा।


ऊर्जा यहाँ नाचती है, क्वांटम सी बनकर,

आती है और जाती है, रहस्य को समेटकर।

आभासी कणों की ये नटखट टोली,

कभी न थमे, कभी न रुके, अपनी ही डोली।


चुंबकीय बल दूर जाकर थम जाता,

मानो कण उसे धीरे-धीरे खाता।

परमाणु बल तो और निराला,

दूरी बढ़े, तो शक्ति बढ़े, यह है अनोखा ला ला ला!


इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन—सब एक ही गीत,

अलग दिखें, पर भेद है बस पलभर की रीत।

टकराव हटा दो, सब मिलें अभिन्न,

यही तो है "एकता" का गहरा भव्य कथन!


ब्रह्मांड नहीं कोई ठोस पिंड भारी,

यह तो है सुरों का स्पंदन, नाचती तरंग सारी।

स्ट्रिंगें कंपती, बनाती नया तान,

तुम, मैं, तारे—सब उसी धुन का गान!


एक सूक्ष्म स्ट्रिंग, दस आयामों की साथ,

आभासी कण, क्वांटम उछाल,

और 13.8 अरब साल का विशाल काल!

कंपन करो, टकराओ, बन जाए जहाँ।

जो बचे अंत में, वही तो सार,

यही है अपना ब्रह्मांड अपार!


तुम सोचते हो, तुम बस "तुम" ही हो?

नहीं, प्रिय मित्र!

तुम एक स्पंदन हो—

ईश्वर की शून्यता में कंपन करता एक स्वर हो!



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