मेरी ज़िन्दगी की डोर किसके हाथ
मेरी ज़िन्दगी की डोर किसके हाथ


मेरी शादी मेरी मर्जी
के खिलाफ हुई,
मगर मैं कुछ भी बोल
नहीं पायी,
जानते हो क्यूँ,
नहीं ना
मैं बताती हूँ
मैं अपनी मम्मी -पापा की
लाडली बेटी थी,
पापा की कोई भी बात
मुझसे टाली
नहीं जाती थी,
इतना मालूम था मुझे कि
पापा जो भी कदम
उठाएंगे,
मेरी हित के लिए ही
होगा,
मेरी इतनी उम्र भी नहीं थी कि
मैं खुद से खुद का फैशला
ले सकूँ,
मैं किसी और को
पसंद करती थी,
मगर हमारे यहाँ का
समाज प्रेम को
कोई तवज्जो
नहीं देता है,
मैंने अपने सपने का
गला घोंट दिया,
बस पापा की
ख़ुशी के लिए,
मैंने अपनी सुनहरी
ज़िन्दगी की डोर
किसी अंजान
के हाथों में दे दिया,
मेरी भी और लड़कियों की
तरह ख्वाहिश थी,
कि मेरा पति
एक सीधा-साधा
सभ्य हो,
जो मुझे मेरे
पापा वाला प्यार दे,
मगर ऐसा कुछ
भी नहीं हुआ,
आज खुद पे
पछतावा होता हैं, कि
शायद कल दिल
की बात सुन
लेती तो शायद आज ये
दिन देखने को
नहीं मिलता,
मैं और लड़कियों की तरह
घर की चार -दीवारी में
में अपनी सुनहरी
ज़िन्दगी बर्बाद नहीं करना
चाहती थी,
यहाँ लोगों की मानसिकता
ऐसी हैं कि
बहू कोई भी जॉब नहीं
करेंगी,
वरना हमारी इज्जत,
मान, मर्यादा
नष्ट हो जाएगी,
मैं इन अंधविश्वास
की दुनिया से
ऊपर उठाना
चाहती हूँ,
मैं अपने पैरों पर
खड़ी होना
चाहती हूँ,
इस समाज की सड़ी
हुई मानसिकता को
बदलना चाहती थी,
ये तभी मुमकिन होगा,
ज़ब इस समाज से
ऊपर उठकर
सोचूंगी,
मैं भी जॉब करुँगी,
इस समाज का
आईना बनूंगी,
अगर आज मैं ख़ामोशी से
सब सह लूँं तो
बेटियों को
न्याय नहीं मिलेगा।