श्रीमद्भागवत -८५; पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य
श्रीमद्भागवत -८५; पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य
प्राचीनबर्हि कहें नारद जी से कि
पूरी तरह समझ में न आया
आप ने जो ये वचन कहें हैं
क्या है उन सब का अभिप्राय।
विवेकी पुरुष समझ सकते हैं
इन सब का तात्पर्य क्या है
कर्ममोहित हम न समझ सकें
आप ने जो उपदेश दिया है।
नारद जी कहें, हे राजन
ये पुरंजन ही जीव वो
पांव वाला या बिना पैर का
शरीर रूप पुर तैयार करे जो।
उस जीव का सखा अविज्ञात ही
स्वयं वो परम ईश्वर है
किसी भी प्रकार से जीवों को
उसका न पता चलता है।
सब प्राकृत विषयों को भोगे
जीव ने जब ये इच्छा की थी
दूसरे शरीरों की अपेक्षा
मानव देह फिर उसने ली थी।
जिस देह के नौ द्वार हैं
दो हाथ और हैं पैर दो
बुद्धि या कहो अविद्या ही
पुरंजनी नाम की स्त्री वो।
इसी के कारण देह, इन्द्रियों में
मैं - मेरेपन का भाव उत्पन्न हो
पुरुष इसी का आश्रय लेकर
इन्द्रियों से विषयों को भोगे वो।
जिनसे ज्ञान, कर्म होते हैं
दस इन्द्रियां ही उस स्त्री के मित्र हैं
और जो सब उसकी सखियाँ हैं
वो सब इन्द्रियों की वृतियां हैं।
प्राण - अपान - व्यान - उदान
समान रूप पांच वृतियों वाला
प्राणवायु ही वो सर्प है
नगर की रक्षा करने वाला।
दोनों प्रकार की इन्द्रियों का नायक
मन ही ग्यारहवां योद्धा है
शब्दादि विषय ही पांचाल देश है
जिसके बीच में नगर बसा है।
उस नगर के नौ द्वार हैं
दो - दो द्वार भी एक जगह हैं
नेत्रगोलक दो, दो नासिकाछिद्र
और दो कर्ण छिद्र हैं।
इनके साथ मुख, लिंग, गुदा
ये तीनों मिलकर नौ द्वार हैं
इनसे होकर इन्द्रियों के साथ जीव
बाह्य विषयों में जाता है।
नेत्रगोलक, नासाछिद्र, मुख
ये पांच द्वार हैं पूर्व के
दाहिना कान दक्षिणद्वार है
उत्तर का द्वार बायां कान ये।
गुदा और लिंग ये नीचे के
पश्चिम के द्वार ये दो छिद्र हैं
अन्त:पुर ही ये ह्रदय है
और उसमें रहने वाला मन है।
जीव जो है वो उस मन से ही
हर्ष और मोह को प्राप्त होता
बुद्धि पुरंजनी के गुणों से लिप्त हो
जीव भी उसी तरह अनुभव करता।
ये शरीर ही रथ रूप है
ज्ञानेन्द्रियाँ रूप पांच घोड़े जुते हैं
पुण्य, पापकर्म ही दो पहिये
तीन गुण इसकी ध्वजा हैं।
पांच प्राण इसकी डोरियां हैं
बागडोर इसकी है मन ये
ह्रदय बैठने का स्थान है
सारथि इसकी है बुद्धि ये।
पांच कर्मेन्द्रियाँ इसकी गति हैं
इस रथ पर चढ़ रथी जीव ये
मिथ्या विषयों की और दौड़ता
ग्यारह इन्द्रियों की सेवा ले।
ज्ञान्द्रियों के द्वारा विषयों को
अन्याय पूर्वक ग्रहण करता वो
उसी चीज को मानो कि है
शिकार खेलता वन में है जो।
काल का ज्ञान हो जिससे
चण्डदेव वो गन्धर्वराज है
तीन सौ साठ गन्धर्व ही दिन हैं
और गान्धर्वियां ही रात हैं।
बारी बारी से चक्कर लगाकर
मनुष्यों की आयु हैं हरते
वृद्धावस्था ही कालकन्या है
जिसको पुरुष पसंद न करते।
मृत्युरूप यवनराज ने
लोकों का संहार करने को
कालकन्या को स्वीकार किया
अपनी बहन बनाया उसको।
मानसिक कलेश और शरीरिक कष्ट जो
पैदल सैनिक हैं यवनराज के
शीत और उष्ण ज्वर ही प्रज्वार है
ले जाने वाला मृत्यु के मुख में।
इस प्रकार से जीव ही
देहाभिमानी हो और अज्ञान वश
पड़ा रहता है मनुष्यशरीर में
कष्ट भोगता हुआ सौ वर्ष।
वैसे तो वो निर्गुण है किन्तु
मैं - मेरेपन के अभिमान से
विषयों का चिंतन करता हुआ
कर्म करे वो तरह तरह के।
यद्यपि यह स्वयंप्रकाश है
स्वरुप हरि का जब तक न जानता
तब तक प्रकृति के गुणों में
ये जीव बंधा है रहता।
इन गुणों का अभिमानी होने से
अलग अलग वो कर्म है करता
और उन कर्मों के अनुसार ही
भिन्न - भिन्न योनियों में पड़ता।
कभी सात्विक कर्मों के द्वारा
स्वर्ग लोक प्राप्त करता है
और राजसी कर्मों द्वारा
रजोगुणी लोकों में पड़ता है।
तमोगुणी कर्मों के द्वारा
जन्म लेता तमोमयी योनियों में
कर्मों के अनुसार ही जाये
देव, मनुष्य या पशु योनियों में।
इस तरह अज्ञानान्ध हो वह कभी
बनता पुरुष कभी स्त्री होता है
कभी नपुंसक वो है होता
कर्मोनुसार सुख दुःख भोगता है।
यदि किसी उपाय से उसका
छूट जाये नाता एक दुःख से
सवार होकर मन पर उसके फिर
दूसरा दुःख आकर घेरे उसे।
कर्मफल से छूटने का उपाय
केवल कर्म नहीं हो सकता
अज्ञाननिद्रा जब तक न टूटे
बंधन न छूटे जन्म मरण का।
इसकी निवृति का उपाय
एकमात्र आत्मज्ञान है
जो जीव को निकालें इससे
वो श्री हरि सबके भगवान् हैं।
सुदृढ़ भक्ति चाहिए हरि में
और मिलती वो हरि कथा में
दुःख उन भक्तों को न सताए
लोग जो इसका पान हैं करते।
नारद जी कहें प्राचीनबर्हि से
कर्मों में ही लगे मत रहो
परमार्थ मिले न इन कर्मों से
प्रभु हरि का ध्यान अब करो।
तुमने इतने यज्ञ किये हैं
वध किया अनेकों पशुओं का
कर्माभिमानी तुम बड़े हो गए
पता न चला प्रभु के रहस्यों का।
वास्तव में सही कर्म वही है
प्रसन्न किया जाये हरी को जिससे
और विद्या भी वही सही है
जिससे इस भगवान में चित लगे।
चरणतल जो हरि के हैं वो
एक मात्र आश्रय मनुष्यों के
उन्ही से ही कल्याण हो सकता
सब जीवों का इस संसार में।
नारद जी कहें, हे राजन
गुप्त साधन बताऊँ मैं अब तुम्हे
भली भाँती निश्चित किया हुआ
ध्यान से अब तुम सुनना मुझे।
पुष्पवाटिका में एक हरिण
हरणि के संग मस्त घूम रहा
उसके साथ विहार करे वो
दूब, अंकुरों को चर रहा।
भोंरे मधुर गुंजार कर रहे
कान हरिण के उसमें लगे हुए
सामने उसके झुंड भेड़ियों के
ताक लगाकर हैं खड़े हुए।
पीछे से शिकारी व्याध ने
उसके ऊपर वाण छोड़ दिया
पर वो इतना बेसुध है कि
उसको कुछ भी पता न चला।
हे राजन, इस हरिण की
दशा के ऊपर तुम विचार करो
इस रूपक का आशय सुनो अब
यह मृतप्राय हरिण तुम्ही हो।
विचार करो अपनी दशा पर
पुष्पों की तरह हैं ये स्त्रियां
केवल देखने में सुंदर हैं
घर उनका ये पुष्पवाटिका।
इसमें रह कर तुम भोग रहे हो
स्त्री संग और तुच्छ भोगों को
जैसे हरिण मस्त है चखकर
पुष्पों की गंध और मधु को।
स्त्रियों से घिरे रहते हो
मन को फंसा रखा है उन्ही में
स्त्री पुत्रों का मधुर भाषण ही
उन भोरों का मधुर गुंजार है।
कान आसक्त हो रहे उसी में
भेड़ियों का झुण्ड है सामने जो
काल के अंश दिन और रात वो
हर रहे तुम्हारी आयु को।
परन्तु तुम उनकी परवाह न करके
गृहस्थी के सुखों में मस्त हो रहे
तुम्हारी पीछे शिकारी लगा ये
वाण से ह्रदय को बींधे काल ये।
इस प्रकार अपने को मृग की
स्थिति में देखकर तुम अब ये करो
चित को ह्रदय के भीतर निरुद्ध करो
गृहस्थ छोड़ हरि को प्रसन्न करो।
प्राचीनबर्हि कहें नारद से
विचार किया उपदेश पर आपके
ह्रदय में जो महान संशय था
पूरी तरह से काट दिया इसने।
वेदों का कथन है ये कि
पुरुष कर्म करता है जिससे
स्थूल शरीर ये यहाँ छोड़कर
परलोक में फल मिले दूसरी देह से।
किन्तु यह कैसे हो सकता
कर्मों का कर्ता तो नष्ट हो जाता
उसके द्वारा जो कर्म किया हुआ
क्षण में वो अदृश्य हो जाता।
परलोक में फिर फल देने को
कैसे ये पुनः प्रकट हो
मेरे मन में अभी ये संदेह है
आप कृपा समझाइये मुझको।
नारद की कहें कि स्थूल शरीर ही
लिंग शरीर के आधीन है
इस पर दायित्व सब कर्मों का
ये शरीर मन प्रधान है।
मनुष्य कर्म करता है अपने
जिस मन प्रधान शरीर से
मरने के बाद भी वह
रहता है साथ में उसके।
अत: वह परलोक में जाकर
अपरोक्ष रूप में उसी के द्वारा
स्वयं फलों को है भोगता
अपने उन किये कर्मों का।
इसी के समान या भिन्न प्रकार के
पशु, पक्षी अदि के शरीर में
भोगता रहता है कर्मों को
जो संस्कार रूप में स्थित हैं मन में।
इस मन के द्वारा जीव मानता
जिन देहादि या स्त्री पुत्रादि को
अपने ऊपर ले लेता उनके
पाप पुण्यादि किये कर्मों को।
इसके कारण ही जीव को
लेना पड़ता है फिर जन्म उसे
कर्म अदृश्य रूप में रहें
उसको उनका फल देने के लिए।
सोलह तत्वों के रूप में विकसित
पंच तन्मात्राओं से बना ये
यह त्रिगुणमय संघात ही
जिसको लिंग शरीर हम कहते।
चेतना शक्ति से युक्त होकर फिर
यह जीव कहा जाता है
इसी के द्वारा पुरुष फिर
भिन्न - भिन्न देह ग्रहण करता है।
इसी से उसे अनुभव है होता
हर्ष, शोक, दुःख, सुख, अदि का
जब तक दूसरा ग्रहण न कर ले
अभिमान न छोड़े पहले शरीर का।
मैत्रेय जी कहें विदुर जी से कि
प्रचिनबर्हि को फिर नारद जी ने
स्वरुप के दिग्दर्शन कराए
जीव के और परम ईश्वर के।
विदा लेकर फिर नारद जी
सिद्ध लोक चले गया वहां से
राज्य का भार पुत्रों को देकर
राजा भी चले गए तपस्या करने।
कपिलाश्रम में पहुँच गए वो
चिंतन करें हरि चरणों का
चित को प्रभु में लगाकर
सारूप्यपद प्राप्त किया था।