ग्लेशियरों की गाथा
ग्लेशियरों की गाथा
किसी बर्फीले पहाड़ पर चाँदी-सी चमकती मानवीय आकृतियाँ,
महज़ बर्फ़ से बनी किसी की कारीगरी कब थीं,
हर जोड़ में जमी थी किसी शिल्पी की ठंडी साँस,
हर परछाईं में धड़कता था एक जीता जागता जीवन।
कांपते हाथों ने सजाया था एक सुनहरा सपना, पर
धूप की तेज़ किरणों ने भ्रम का पर्दा चीर दिया,
पिघलने लगी बर्फ की मूर्तियां,
उनके हर अंग से टपकने लगा समय का प्रवाह,
हर गिरती बूँद में लिखी थी एक मरणोपरांत कहानी।
ये आकृतियाँ सिर्फ़ ठंडी मूर्तियाँ नहीं थीं,
ये जीवन की नाज़ुकता का दर्पण थीं,
हर पल गिनती घड़ी की धीमी आवाज,
"समय ख़ुद एक पिघलता हुआ ग्लेशियर है।"
तो क्या सिर्फ़ हम ही? यह धरती भी तो
रच रही है अपना मृत्यु का गीत।
जहाँ ग्लेशियरों की साँसें अटकी हैं,
वहाँ बर्फ़ के निर्जीव शरीर पानी बन रहे हैं।
मज़बूत विश्वास, अटूट नियम—सब
बह चले हैं जलवायु के रिसते हुए घावों में।
ग्लेशियर के गालों पर लुढ़कती आँसू की बूँद
अब जलवायु घड़ी का चेतावनी अलार्म बन गई है।
कला, जीवन, और प्रकृति - तीनों की
यह त्रासदी एक ही दुखद धुन में गूँजती है,
"सुंदरता एक क्षणिक, अस्थायी माया है,
और बदलाव... यही अविनाशी सत्य है।"
अगली बार जब तुम देखो कोई बर्फ़ की कारीगरी,
समझ लेना,
यह पल भी मानवयुग की गोद में पिघल रहा है।
इसे छुओ, इसे जियो, संघर्ष करो...
कल यह सिर्फ़ आर्कटिक के आखिरी टुकड़े की कहानी होगी।
