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Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१३४ ; नारद युधिष्ठर संवाद और जय विजय की कथा

श्रीमद्भागवत -१३४ ; नारद युधिष्ठर संवाद और जय विजय की कथा

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राजा परीक्षित पूछें, हे भगवन

भगवान तो रहित हैं भेदभाव से

समस्त प्राणियों के सुहृदय हैं

स्वभाव में तो सम हैं वे।


फिर साधारण मनुष्य की तरह

भेदभाव कर मित्र का पक्ष ले

दैत्यों का अनिष्ट करने को क्यों किया

उनका वध, इंद्र के लिए।


जिससे उनके समत्व आदि 

गुणों के सम्बन्ध में हमें

बड़ा भारी संदेह हो रहा

कृपा कर आप इसको मिटाइये।


शुकदेव जी कहें, हे राजन

सुंदर प्रश्न किया आपने

भगवान अव्यक्त, प्रकृति से परे हैं

अजन्मा, निर्गुण हैं वास्तव में।


ऐसा होने पर भी अपनी

माया के गुणों को स्वीकार करके वे 

परस्पर विरोधी रूप ग्रहण करें

मरने और मारने वाले दोनों के।


सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण

प्रकृति के तीनों गुण हैं ये

परमात्मा के ये गुण नहीं हैं

समयनुसार वे गुणों को स्वीकार करें।


सत्वगुण की वृद्धि के समय

अपनाते देवता और ऋषिओं को

वृद्धि के समय रजोगुण की

अपनाया करते वो दैत्यों को।


अपनाते यक्ष और राक्षसों को

वृद्धि हो जब तमोगुण की

इन तीनों गुणों की एक साथ ही

कभी घटती बढ़ती नहीं होती।


जैसे उससे अलग न जान पड़े

अग्नि काष्ठ में रहने पर भी

परन्तु मंथन करने पर वह

अलग से है प्रकट हो जाती।


वैसे ही शरीर में रहकर परमात्मा

अलग नहीं जान पड़ते हैं

विचारशील पुरुष हृदय मंथन करके

हृदय में उन्हें प्राप्त करते हैं।


शरीरों का निर्माण करना चाहते

परमेश्वर अपने लिए जब

वो अलग सृष्टि करते हैं

अपनी माया से रजोगुण की तब।


विचित्र योनिओं में रमण करना चाहते तो

सत्वगुणों की सृष्टि हैं करते

तमोगुण को बढ़ा देते हैं

जब वो शयन हैं करना चाहते।


भगवान सत्यसंकल्प हैं

वो ही काल की सृष्टि करते

इसीलिए उसके आधीन नहीं

काल ही आधीन है उनके।


काल स्वरूप ईश्वर ही जब

करते वृद्धि हैं सत्वगुण की वे

बल बढ़ाते सत्वमय देवताओं का

दैत्यों का संहार हैं करते।


राजन, देवऋषि नारद ने

इसी विषय में एक इतिहास कहा है

राजसूय यज्ञ युधिष्ठर जब कर रहे

ये उस समय की बात है।


तुम्हारे दादा युधिष्ठिर ने उस

राजसूय यज्ञ में देखा था ये कि

शिशुपाल देखते देखते सबके

भगवान कृष्ण में समा गए।


नारद भी वहां बैठे हुए थे

और आश्चर्यचकित हो इस घटना से

युधिष्ठिर ने प्रश्न किया था

तब यह देवर्षि नारद से।


पूछा कि कृष्ण में समा जाना तो 

दुर्लभ है अनन्य भक्तों के लिए

फिर शिशुपाल को ये गति कैसे मिली

वे तो द्वेष करते भगवान से।


इसका रहस्य हम जानना चाहते

शिशुपाल और दन्तवक्त्र दोनों वो

जबसे तुतलाकर बोलने लगे

गाली ये देते हैं कृष्ण को।


परन्तु इनको कोई नर्क न मिला

लीन हो गए ये कृष्ण में

इस सबका क्या कारण है

कृपा कर हमको बतलाइये।


शुकदेव जी कहें कि नारद जी

प्रसन्न हुए सुनकर प्रश्न ये

युधिष्ठिर को सम्बोधित करके

वो सभी से ये कथा कहें।


नारद जी ने कहा, युधिष्ठिर

सत्कार या तिरस्कार और निंदा या स्तुति

इस शरीर के ही होते हैं

आत्मा के ये सब होते नहीं।


जब इस शरीर को अपना

आत्मा मान लिया जाता है

तब ऐसा भाव बन जाता

' यह मैं और यह मेरा है '|


सारे भेद भाव का मूल ये

इसी के कारण पीड़ा होती

जब कोई है हमें डांटता

या दुर्वचन कहे हमें कोई।


' यह मैं हूँ', अभिमान हो जाता

मनुष्य को जिस शरीर से

वध जान पड़ता अपना ही

प्राणियों को उस शरीर के वध से।


किन्तु भगवान तो सर्वात्मा हैं

और वो हैं अद्वित्य भी

दूसरों को वे जब दण्ड हैं देते

वो उनके कल्याण के लिए ही।


द्वेषवश अथवा क्रोधवश 

वे किसी को दण्ड न देते

इसलिए चाहे भक्तिभाव से

या सुहृदय वैर भाव से।


भय से या स्नेह से किसी

अथवा अपनी किसी कामना से

पूर्ण रूप में अपने मन को

लगा लेना चाहिए भगवान में।


भगवान की दृष्टि में कोई

भेद नहीं है इन भावों में

वैरभाव से मनुष्य जितना तन्मय हो

नहीं होता उतना भक्तिभाव से।


सर्वशक्तिमान भगवान ही तो हैं

मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये

इनसे वैर करते करते ही

इन्हीं को वो प्राप्त हो गए।


भगवान से मिलन गोपिओं का

हुआ था प्रेम भाव से

शिशुपाल, दन्तवक्त्र ने पाया द्वेष से

कंस ने पाया था भय से।


यदुवंशियों ने परिवार की भावना से

मन को लगाया था भगवान में

तुम लोगों ने लगाया स्नेह में

भक्ति में लगाया हम लोगों ने।


मन को तन्मय कर लेना चाहिए

जैसे भी हो भगवान कृष्ण में

फिर शिशुपाल और दन्तवक्त्र तो

भगवान के पार्षद थे पहले।


नारद कहें, राजा युधिष्ठिर से

शाप के कारण ब्राह्मणों के

जय, विजय नाम के पार्षद

च्युत हुए थे अपने पद से।


राजा परीक्षित पूछें, हे भगवान 

भगवान के पार्षदों को जो प्रभावित करे 

ऐसा शाप किसने दिया था 

कहें कथा विस्तार से हमें। 


नारद जी बोले कि एक दिन 

सनकादि ऋषि विचरण करते हुए 

वैकुंठ धाम में पहुँच गए वो 

लगते थे सभी पांच छ बरस के। 


वस्त्र भी वो नहीं थे पहनते 

साधारण बालक समझकर उनको 

द्वारपालों ने रोका, मना किया 

वैकुण्ठ के भीतर जाने को। 


इससे वो थे क्रोधित हो गए 

असुरयोनि में जाने का शाप दिया 

तीन जन्मों में, शाप भोगकर 

वैकुण्ठ आ जाना, उनसे ये कहा। 


वही दोनों दित्ती के पुत्र हुए 

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नाम के 

नृसिंह और वराह अवतार ले 

विष्णु जी ने मारा था उन्हें। 


भागवत प्रेमी होने के कारण 

हिरण्यकशिपु ने पुत्र प्रह्लाद को 

कई बार था मारना चाहा 

किन्तु भगवान से थे सुरक्षित वो। 


युधिष्ठिर, यही दोनों ही 

राक्षसों के रूप में फिर पैदा हुए 

विशवा मुनि के द्वारा उनकी 

पत्नी कैकसी के गर्भ से। 


नाम रावण, कुम्भकर्ण था इनका 

रामरूप में इनका वध किया 

शिशुपाल, दन्तवक्त्र के रूप में 

उन दोनों ने ही है जन्म लिया। 


कृष्ण के चक्र का स्पर्श कर 

पाप नष्ट हुए उनके सारे 

और सनकादि के शाप से 

वो दोनों हैं मुक्त हो गए। 


वैरभाव से तो निरंतर ही 

भगवान कृष्ण का चिंतन किया करते 

उसी के फलस्वरूप वे दोनों 

फिर आये समीप प्रभु के। 


युधिष्ठिर ने पूछा, हे भगवन 

इतना द्रोह क्यों किया था 

हिरण्यकशिपु ने पुत्र प्रह्लाद से 

सुनाइये हमको अब ये कथा। 





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