संजोना चाहा है तुम्हे..
संजोना चाहा है तुम्हे..
खुद,
खामोश हो,
संजोना चाहा है,
तुम्हे मैंने..
तुम्हारी बूढ़ी
आंखों में बुझते सपने
कांपते झूर्रियों भरे
हाथ की कमजोर पकड़
मुझे बेचैन करती है।
मुझे राह दिखाते
थकता हुआ
दिमाग तुम्हारा
कभी भी
मुझे मंजूर नहीं होता।
तुम्हारी मंद
अष्पष्ट बुदबुदाहट
घर के कोने कोने को
जीवित होने का
अहसास दिलाती है।
नन्ही आंखों से
तुम्हे मुझे देर तक ताकते
ऊंघते दालान पर बैठे
मेरी चीख पर
उठ बैठते देखा है मैंने।
सुना है उम्र
लगती है किसी को
दिल से देने पर
खड़े हो आंगन में
हर बार देनी चाही है
तुम्हे उम्र अपनी।
तुम्हारी डांट,
गालों पर चपत
निर्दोष होते हुए भी
सहर्ष स्वीकारी है
क्योंकि खुद खामोश हो,
संजोंना चाहा है
तुम्हें मैंने..।
