सन्नाटा चुभता कानों को मेरे
सन्नाटा चुभता कानों को मेरे
सन्नाटा चुभता कानों को मेरे,
ढल गई कितनी ही शामें, बीत गए कितने ही सवेरे,
पर जब जमीन ना मिले इन आसमानो को मेरे,
इनके मेल से पैदा जिंदगी की कमी का,
सन्नाटा चुभता कानों को मेरे।
शांति में सुकून है और सन्नाटे में घबराहट
जब मेरी सांसें भी ना करें कोई आहट।
जब अकेलापन हरा दे किसी के आगमन के अनुमानों को मेरे,
तब सन्नाटा चुभता कानों को मेरे ।
जब दुख आए मेरे हाथ पकड़ने को,
और बुराई करे कोशिश मुझे जकड़ने को,
जब दूर ना कर पाऊँ मैं इन बिन बुलाए मेहमानों को मेरे,
इनके शोर से पैदा हुआ
सन्नाटा चुभता कानो को मेरे ।
पर एकाग्र मन से लूँ जब हरि का नाम
तब छिटक जाए बुराई मेरे आस पास की तमाम।
उनके बिना, जब दुख की दरारें झेलनी पड़े मन के मकानों को मेरे,
तब सन्नाटा चुभता कानों को मेरे।
