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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१३१ ; चित्रकेतु को पार्वती जी का शाप

श्रीमद्भागवत -१३१ ; चित्रकेतु को पार्वती जी का शाप

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शुकदेव जी कहें, चित्रकेतु विद्याधर

आकाशमार्ग में स्वछन्द विचरने लगे

करोड़ों वर्षों तक सुमेरु पर्वत की

घाटिओं में विहार करते रहे।


बड़े बड़े मुनि, सिद्ध, चारण

करते रहते थे उनकी स्तुति

अपने विमान पर सवार हो

जा रहे थे एक दिन वो कहीं।


इसी समय उन्होंने देखा

सिद्ध, चारण, मुनियों के बीच में

भगवान शंकर बैठे हुए है

बैठाकर पार्वती को गोद में।


यह देख विमान पर चढ़े हुए ही

वो थे उनके पास चले गए

और सुना सुनाकर पार्वती को 

हंसने लगे और कहने लगे।


सारे जगत के गुरुदेव ये

श्रेष्ठ हैं सभी प्राणियों में

इनकी यह दशा कि चिपकाये बैठे

अपनी पत्नी को भरी सभा मैं।


बहुत बड़े तपस्वी होकर भी

साधारण पुरुष के समान ये

निर्लज्जता से अपनी गोद में

स्त्री को लेकर हैं बैठे हुए।


शंकर की बुद्धि अगाध है

सुनकर ये कथन हंसने लगे

सभा में बैठे अनुयायी भी

सारे ये सुनकर चुप रहे।


शिव शंकर के प्रभाव का

चित्रकेतु को पता नहीं था

वो सोचे मैं जितेन्द्रिय हूँ

घमंड उसे था इस बात का।


धृष्टता देख चित्रकेतु की

पार्वती ने क्रोध में कहा

साक्षात् जगद्गुरु भगवान का

इस अधम क्षत्रिय ने तिरस्कार किया।


इसीलिए ये दण्ड का पात्र

रहने योग्य नहीं ये मूर्ख

भगवान हरि के चरणकमलों में

जिनकी उपासना करते हैं सत्पुरुष।


पार्वती कहें चित्रकेतु से

असुर योनि में तुम जाओ

ताकि किसी सत्पुरुष का

अपराध कभी तुम न कर पाओ।


पार्वती ने जब शाप दे दिया

चित्रकेतु उतरे विमान से

झुककर उन्हें प्रणाम किया

और प्रसन्न करने लगे उन्हें।


चित्रकेतु कहें, हे माता

हाथ जोड़ स्वीकार शाप ये

प्रारब्ध अनुसार मिलने वाला फल है 

देवता, मनुष्यों के लिए जो कह दें।


ना अपना आत्मा, ना कोई दूसरा

सुख या दुःख है देने वाला

प्रनियों तथा उनके सुख दुःख की

रचना करती भगवान की माया।


उनका कोई प्रिय, अप्रिय नहीं

न जाति -बंधू, अपना - पराया ना

एकमात्र परिपूर्णत्य भगवान वो

लीला उनकी कोई जान न सका।


शाप मुक्त होने के लिए मैं

आपको प्रसन्न नहीं कर रहा

मेरी बात जो अनुचित लगी आपको

बस उसके लिए क्षमा मांग रहा।


विद्याधर चित्रकेतु इस तरह

शिव - पार्वती को प्रसन्न कर

उनके सामने ही चले गया वहां से

सवार होकर अपने विमान पर।


उससे वहां लोगों को विस्मय हुआ

तब ये बात कही शंकर ने

पार्वती को सम्बोधित कर

देवता, पार्षदों, ऋषिओं के सामने।


शंकर कहें, भगवान के दास की तुमने 

देखी महिमा अपनी आँखों से

भगवान के शरणागत जो होते

वो किसी से नहीं हैं डरते।


क्योंकि स्वर्ग, मोक्ष, नरकों में

दर्शन होते हैं समान भाव से

केवल एक ही वस्तु के

प्रभु श्री हरि भगवान के।


मैं, ब्रह्मा, सनकादि, नारद और

ब्रह्मा के पुत्र भृगु आदि मुनि

भगवान की लीलाओं का

रहस्य जान न पाए कोई भी।


ऐसी अवस्था में कैसे जान सके

वे सब उनके स्वरूप को

उनके नन्हे से नन्हे अंश जो

मान लेते ईश्वर अपने को।


भगवान सभी प्राणियों की आत्मा

सभी प्राणियों के प्रियतम हैं

यह चित्रकेतु उनका ही

परमभाग्यवान प्रिय अनुचर है।


मैं भी प्रिय हूँ हरि का

आश्चर्य न करो तुम इसलिए

शांत, समदर्शी, महात्मा

भगवान के भक्तों के सम्बन्ध में।


शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित

सारा विस्मय जाता रहा उनका

शंकर जी की बात को सुनकर 

चित शांत हुआ पार्वती का।


दानवयोनि का आश्रय लेकर

चित्रकेतु ही वृत्रासुर हुआ

यहाँ भी वो भगवत्स्वरूप व्

ज्ञान, भक्ति से परिपूर्ण था।



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