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हाथों में नहीं कभी खिलौना !
आंखों की खोई है मुस्कान !!
पीठ भरी नीले जख्मों से...
गाल भरे थप्पड़ के निशान !!
हाथों में पड़ी कितनी गाॅंठें !
भोली जिंदगी होती नित हलकान !!
थका शरीर पड़ा है निढाल !
ओढ़ नीले नभ का वितान !!
झिड़कियाॅं औ दुख सौ सहे !
सब सुखों से हैं अनजान !!
कोमल पाँव नित धूप सहे...
काया श्रम से हुई बेजान !!
नहीं खेलों का सुख जीवन में !
नहीं शिक्षा का है अभिमान !!
बस ठोकर ही है जीवन में !
दुख अभाव ही बनी पहचान !!
सुख से निहाल हों माॅं -बाप !
चूमे नहीं मुख गात सबके समान ! !
बस विवश भेजते उस दुनिया में
निजी लाल, जहाॅं न प्यार सम्मान !!
किया नहीं किल्लोल कभी !
कि हों माॅं -बाप बलिहारी सुजान !
नित्य विपत्तियों से जूझते हुए–
किलकारियाँ खोईं श्रम के जहान !!
करें सब आज दृढ़ संकल्प ये:
भोली जिंदगी न हो यूँ निष्प्राण !!
देंगे इन्हें देखभाल की संजीवनी !
बनाएंँगे इनका बचपन प्राणवान !!