शहर
शहर
बचपन का मेरा शहर कहीं खो गया
अज़नबी सा होकर मानों कही सो गया
गलियों में अब नहीं दिखते खेलतें बच्चें
शायद ये शहर मेरे साथ ही बड़ा हो गया
शहर के रास्तों पर लगी ये भीड़
जाती है किधर कुछ खबर ही नहीं
लगता है जैसे कुछ खो गया
क्या खो गया किसी को ख़बर ही नही
खिड़कियों से अब नहीं दिखता सूरज
चाँद की रौशनी भी अब पड़ती नहीं
दरख़तों पर आजकल पंछी नही बैठते
जाने कौन इस शहर का गुनाहगार बन गया
बचपन का मेरा शहर कहीं सो गया
अज़नबी सा होकर मानो कहीं खो गया।