सफ़र-ए-गलियाँ
सफ़र-ए-गलियाँ
26 साल के सफ़र में थक-हार के मैंने इतना जाना
नहीं यहाँ कोई अपना हर रिश्ते का उठना है जनाज़ा।
जरूरत ही इंसान को इंसान का मित्र बनाती है
खत्म जहाँ जरूरत आपकी, वहाँ दोस्ती लेती अंगड़ाई है।
वह सारे कसमे-वादे फीके पड़ जाते हैं
जहाँ आपके जीवन में लोगों को अंधकार नजर आते हैं।
साथ कबीला ना कोई जाता है
संघर्ष की सीढ़ियों पर इंसान अकेला जाता है।
मंज़िल जो मिली कामयाबी की सब अपने हो जाते हैं
एक असफलता जो मिली अपने पराये बन जाते हैं।
यही है दस्तूर हमारे सभ्य समाज में
सफल इंसान अपने और असफल पराये हो जाते हैं।
