सबकुछ तो तय हैं ...
सबकुछ तो तय हैं ...
सबकुछ तो तय हैं, फिर किस बात का भय हैं ?
जन्म से लकीर खींची श्मशान तक
रोटी से लेकर उस चाँद तक भागते हो
आखिर इंसान तुम क्या चाहते हो ?
खुद पे इतना घमडं हैं या किसी द्विधा में हो ?
कहीं इंसान इंसानियत भुला तो नहीं
माना की भूख होना भी प्राकृतिक धरम हैं
मगर उतनाही चाय में शक्कर, खाने में नमक
इंसान - इंसान में इतना फर्क क्यों हैं भाई ?
एक रोटी के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं
दूसरा रोटी के बदले कुछ भी काम करवाता हैं
एक खून चूसता हैं दूसरा बहाता हैं क्यों इंसान ?
उन्हें भूख नहीं लगती इसलिए परेशांन हैं
यह भूक क्यों लगती हैं बार - बारे सोचते हैं
दुनिया भरके हर फसाद की जड़ भूख ही हैं
भूख लगे तो परेशान, ना लगे तो भी परेशान।
