खुद चाहा पर........भाग-२
खुद चाहा पर........भाग-२
जब साथी जो तुम्हारे नाम से कभी
छेड़ते थेे मुझेे जब भी वहां हर घड़ी
गुस्सा आता पर कहा ना जाता था
वो छेड़ना भी तब मुझको भाता था।
पर जब तुमने रंग बदल लिया था
सोचा था कभी देखूं ना तुम्हारी ओर
पर तुमने मुुझे ही वो जरिया बनाया था
और मैंने ही बांध दी दूजी प्रीत की डोर।
कभी लिखे प्रेम पत्र शायरियों से भरेे
जो सिर्फ उसने सुने और मैंने ही थे पढ़े़
उसकी ना का जवाब सुन मैं थी खुुश पर
फिर उसे मनाने के काम भी सारे मैंने करे।
तुम ना तब समझे थे और ना जान पाए थे
दूसरोंं के कहने मात्र पर तुम्हें यकीन था
कितनी कोशिश की तुम्हें सच बताने की
पर तब हम तुम्हारे लिए अनजान साए थे।