रूह
रूह
बातों का तिलिस्म यूं घना घना
हर ओर शब्दों के गहरे पहरे
भले ही पिघल जाती हूं
सुनकर सब व्यथा
जिस पर कोई जिक्र मेरी रूह छू ले
तो कोई बात बने
अब ना यकीन किसी आंसू पर भी जैसे
दर्द ठहरे हैं दरिया में जैसे
रिस रिस कर निकली हो हर आवाज जहां
कब तलक यकीं करूं किसी और की बातें
कहानियां तो कई बनी
जब कहीं मिले बस मेरी कहानी
जो छू ले रूह को
तो कोई बात बने
किस्मत की लकीरें भी जैसे रुठी हों
मिल कर भी अपना कोई जैसे कुछ छुटा हो
साजिश सी हो जैसे हर ओर
कोई अपना हो जो मिल जाए रुह से
तो कोई बात बने