निशान
निशान
वक़्त के फिसलते रेत पर
चंद मुट्ठियों के सपने भरे
हम अपनी आंखों में चलते जा रहे
एक निशान इस वक़्त के पटल पर हमें भी बनाना होगा
फासले बेशक रखे हम कदम दर कदम
पर अपनों की नजर मिलती रहे
वो एक घेरा हमें ही बनाना होगा
मिट जाती है हर निशानियां यहां
वक़्त के साथ ना चल पाने वालों की
अंगारों पर भी एक सुकून हमें भी बनाना होगा
कितने चोट खाए हम भी वक़्त के साथ
और हर चोट के बाद भी हमें मुस्कुराना होगा
कितने ही परिंदों को देखा हमने
लौट आए हर शाम अपनी नीड में अपनों के लिए
फिर इंसान की ये कैसी कोशिश खुद अकेला रहा जाने की
हर ओर है अंधेरा मगर
चिरागों में भी पहली रोशनी हमें ही जलाना होगा!