नीड़
नीड़
कई बार उड़ती है
मुंह में तिनका तिनका संजोए
हर बार हर छोटी सी आशा के साथ
देखती हूं अपनी खिड़की से उस नन्ही सी चिड़िया को
अपने घरौंदे के लिए
हर जतन कर जाती है
हौले हौले से एक तिनका सजाती है
अपने बच्चे को, एक एक दाना मुंह में डालती है
हर धूप छांव बारिश से बचाने को,
चीं चीं करके अपने दुश्मनों से भी लड़ जाती है
जब टूट जाता है वो नीड़
तब शायद वो भी टूट जाती है
अब जब उसे नहीं मिलता पेड़ों की टहनियां और कोटरें
वो मजबूर हो जाती है,
इंसानों के घरों में ही अपनी नीड़ बसाने को
और तोड़ देता है इंसान उस नीड़ को बिन सोचे और समझे
और फिर कहीं टूट जाती है वो चिड़िया भी