क़लम थक गई
क़लम थक गई
सोच रहा हूं क्या लिखूं मैं,
क़लम थक गई।
आशाओं के दीप बुझ रहे,
ललक मीट गई।
ना कुरितियां ख़त्म हुई,
न समाज में कोई बदलाव आया।
बच्चे बड़े अब हो चले हैं,
बाल पक गई।
अखबारों के हाल वही हैं।
ख़बरें बेमिसाल वही हैं।
लूट, मार, बलात्कार, दंगा।
पहली पृष्ठ की खबर बन गई।
देख देख कर बचपन बिता,
और कट गई जवानी।
आज बुढ़ापे में भी टप टप,
गिरती आंख से पानी।
जनता का भी हाल वही है,
नेताओं के चाल वही हैं।
देखो थानेदार वही हैं,
और चौकीदार वही हैं।
आस पड़ोस की चिंता हमको,
आज भी घर से ज़्यादा है।
मनोज दुःखी हैं बहुत,
पड़ोसी खुश हैं हमें भनक लग गई।
सोच रहा हूं..........