रंगबरसे
रंगबरसे
मेरे मालिक !
मेरे महबूब ! कभी तो,
इन रंग-बिरंगे रंगों की, अद्भुत, रंगीन दुनिया
मुझ रंगहीन को भी दिखा दो ।
खेलते हैं किस तरह ?
संग अपने प्रियतम के
इन, इठलाते - भड़काते, मदमस्त रंगों की, बेसुध सी, आवरा सी, बेशरम होली
अब, आ भी जाओ, और मुझ, ग़मगीन, को भी सिखा दो ।
बेशक ! मैं जानती हूँ कि, मैं बदरंग हो चुकी हूँ
पर, आज, अभी, बस, इसी क्षण से, मैं भी रंग जाना चाहती हूँ,
हर - एक ढंग से, हर - एक रंग में,
फेंक दो नोचकर, ये सुनहरे वस्त्र और स्वर्णिम आभूषण
कुम्हलाये, झुंझलाये, मुरझाये, जीर्ण - शीर्ण तन से मेरे ,
और, कूट - कूटकर, बस, रंग ही रंग भर दो,
ओ ! मेरे मलंग ! आज, मेरे हर - एक, अंग - अंग में ।
वीरान हवेली जैसी, कुछ पथरा सी गयीें, मेरी इन आँखों में,
अब तो भर दो, काली स्याह रात का, रंग काला - काला
बंजर धरती से, सूखे - सूखे, पपड़ाये हुए,
इन शुष्क, प्यासे अधरों को, अब पिला भी दो,
तुम उन्मुक्त, सुर्ख लाल रंग की, कामोन्मत्त हाला ।
मेरी विधवा सी, कई बरसों से, सूनी पड़ी माँग में,
बस, थोड़ा सा शाम का, सिन्दूरी रंग छितरा दो
मृतप्राय, काँपते हाथों में, अल्हड़, जवाँ मेहँदी का,
तनिक मेहंदिया रंग तो, जरा चढ़ा दो ।
निस्तेज, सहमे - सहमे से, गालों को,
ज़रा सा, चुराकर ही सही, गुलाब का, गुलाबी रंग दे दो
मेरे, सदियों से मौन पड़े, बदरंग वस्त्रों को,
सरसराती - इठलाती, शोखियों से भरा, शोख हरा ढंग दे दो ।
अब, दे भी दो, मुझे भी, हर रंग प्रिये, आखिर, मेरा भी मन ,
बस मन ही तो है, फिर, ये क्यों सिसके ? ये क्यों तरसे ?
कहे देती हूँ, मैं आज, तुमसे चीख - चीखकर मेरे ख़ुदा !
साफ़ आसमाँ की, मुझे तलाश ? कतई नहीं ! हर्गिज़ नहीं !
बस, एक अदद ख़्वाहिश है ! बस, अदनी सी इल्तज़ा है !
जो अबके रंगबरसे, तो झूमके रंगबरसे !
बस रंग ही #रंगबरसे ! बस रंग ही #रंगबरसे !