एक और लाक्षागृह ...
एक और लाक्षागृह ...
जी चाहता है, आज मैं बनवाऊँ, एक और लाक्षागृह
ज़िंदा आहुति, क्यों न, दे दी जाये ?
इस बार, समस्त कौरवों की, मय धृतराष्ट्र !
जो न देख सका, और न ही सुन सका, आहटें
पुनः आने वाले, 'कोरोना' काल की।
जी चाहता है, आज मैं बनवाऊँ, एक और लाक्षागृह
ज़िंदा आहुति, क्यों न दे दी जाये ?
इस बार, समस्त गुप्तचर सेना की, मय सेनापति !
जो न देख सकी, और न ही सुन सकी, सरसराहटें
षड्यंत्रकारियों के, फेंके जाल की।
जी चाहता है, आज मैं बनवाऊँ, एक और लाक्षागृह
ज़िंदा आहुति, क्यों न दे दी जाये ?
इस बार, समस्त मंत्रिमंडल की, मय मुख्यमंत्री !
जिन्होंने, न ढंग से देख-भाल की, न संभाल की
'भारतमाता' और 'भारतमाता' के लाल की।
