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Shaili Srivastava

Tragedy

4  

Shaili Srivastava

Tragedy

क्या है ज़िंदगी ?

क्या है ज़िंदगी ?

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तुम, क्या जानो, क्या है ज़िंदगी ? 

तुम, क्या समझो, क्या है ज़िंदगी ?


तुम, जो बस जीते हो, सिर्फ़ अपने ही वजूद के संग 

तुम, जो, बस महकते हो, महज़ अपने ही फूलों के संग 


तुम, जिसने न देखा कभी, कुचले हुए, अरमानों का रंग 

तुम, जिसने न देखा कभी, बेमुरव्वत वक़्त का, कहर ढाता ढंग


तुम, जो इतना करते हो, प्रेम, उस "परम-पिता परमेश्वर" से 

तुम, क्या जानो, मैं आ चुकी हूँ, किस क़दर तंग, "उन्हीं" के, इसी प्रेम से 


करते हैं वो "सर्वशक्तिमान" जिस किसी से प्रेम, वो किया जाता है, रगड़ -रगड़कर साफ !

पर ये कैसा प्रेम है प्रिय, जिसमें "प्रियतम", कभी नहीं करता, अपने ही प्रिय को माफ़ ? 

 

तुम भी उनके, मैं भी उनकी, फिर तुममें-मुझमें, ये फ़र्क क्यों ?

दामन उनका, बस तुम्हारे लिये, और मेरे लिए, ये नर्क क्यों ?


आकर करते हैं, "वो" तुमसे बातें, काले-काले अंधियारे में

पर मेरे लिए हैं, क्यों होंठ सिले, दिन के गहरे उजियारे में

पढ़ा है, खटखटाओ, "ईश्वर" का दरवाज़ा ज़रूर खुलता है, एक दिन 

सुना है, माँगो मन से, "ईश्वर" से तुम्हें ज़रूर मिलता है, एक दिन 

 

गयी गुजर, तमाम उम्र, तुम्हारे उस "परमेश्वर" का, द्वार खटखटाते हुए 

ज़िंदा ही, जहन्नुम की आग में, जलते हुए, सिसकते हुए, कंपकंपाते हुए 


लो चलो, तुम्हें, आज बतला ही देती हूँ, कि, क्या है ज़िन्दगी ?

एक खामोश शिकायत है, शुष्क लबों पर, या बा-अदब, "ख़ुदाबंद" की है बन्दग़ी ! 


ग़र हो "सुक़रात", अगर तुम प्रिय - ज़िंदगी है ज़हर, पीना ही पड़ता है

ग़र हो "ईसा", अगर तुम प्रिय - ज़िंदगी है सूली, चढ़ना ही पड़ता है 

 

मैं सुकरात नहीं, न हूँ मैं ईसा, न ही बनना चाहती हूँ, कोई भी मसीहा 

इंसान हूँ मैं, बस है मुझको, मेरी ज़िन्दगी को, चैन-ओ-अमन से जीना 


इंसान बनी, न हैवान बनी, फिर क्यों सब-कुछ मुझसे छीना ?

क्या ये ही है, एक इंसान का गुनाह, उसका इंसान बनकर जीना ? 


ज़िंदगी है, बस वो ज़िंदगी, जिसमें, किसी-को भी, ईश्वर से, कभी-भी, कुछ-भी नहीं, कहना पड़ता है !

वरना, ज़िंदगी के नाम पर, कुछ रूहों को, ज़िंदा ही, हर रोज़, तिल -तिल कर मरना पड़ता है !! 

 

तुम, क्या जानो, क्या है ज़िंदगी ? 

तुम, क्या समझो, क्या है ज़िंदगी ?


 


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