रोकेगा उसे कौन ?
रोकेगा उसे कौन ?
अपने चमन की हर कली को, उसका बागवान,
तहे - दिल से प्यार करता था ।
रखता था महफूज़, बुरी बलाओं से उसको,
वो दिलोजान, उस पर निसार करता था ।
करता था हिफाज़त, कली की, फूल बनने तलक,
वो कदम - कदम पे, उसका, बड़ा ख़्याल रखता था ।
हर अला-बला से, वो कराता था, उसे वाकिफ़, गंदी चालों से,
चालबाज़ों की, होशियार करता था ।
मचल जाते थे, जब किसी मनचले के, नापाक हाथ, और, छू लेते थे,
उसके पाक फूल को, पल में निकाल नश्तर, वो आर-पार करता था।
अपनी ही, लख्ते जिगर का, दीदार तक, जो न करता था,
कभी जी भरकर, वो, आज, इस ज़माने में, अपने ही चमन की कली को,
किस तरह ? खुद के लिए ही, तैयार करता है ?
जो न कर पाता है, वो हासिल, किसी और के चमन का फूल,
तो वो बदनीयत, खुद, अपने ही चमन में घुसकर, अपनों का ही शिकार करता है।
चमन, उसका हो, या, किसी और का, उसे क्या फर्क पड़ता है ?
वो शिकारी, हर कली, और हर फूल पे, छिपके, वार करता है I
वो न हिन्दू है, न मुस्लिम है, न है सिख, और, न ही इसाई है,
वो बस रौंदता है, एक मासूम कली को, या फिर, एक अधखिले फूल को,
और, अपने गंदे फितूर को, अपने गंदे दिमाग से, कुछ इस तरह, फऱार करता है।
रोकेगा ! उसे कौन ? मैं, आप, या, हम सब ?
अरे ! छिपा बैठा है, वो वहशी दरिंदा, हमारे ही घरों में,
और, हम सबसे बेइंतहा प्यार करता है I
चँद महीनों में ही, बरबाद कर दिया, उसने, न जाने कितनी ही कलियों को,
और, एक हमारा ये इंसाफ का तराज़ू है !
जो, अब भी उसे, तुरंत, मौत देने से, बड़ी ही नरमी से बार-बार, इंकार करता है !!!
