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Rashmi Sinha

Tragedy Classics

3  

Rashmi Sinha

Tragedy Classics

रिक्त

रिक्त

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214


इतनी भीड़ में,

इतनी बातों के बीच,

इतनी मुलाकातों के बीच,

मेरा मैं--

सिर्फ सतह पर ही रहता है,


बिना सोच बोलती हूँ,

भावनाहीन सी सुनती हूँ,

यन्त्रवत खिलखिलाती हूँ,

बिन सोचे---

तुम्हारे सीने से लग जाती हूँ,


तुम्हारा प्यार, तुम्हारा चुम्बन,

तुम्हारा उपहार,

रूह तक नही पहुंच पाता है,

मेरे अंदर मत झांको,

मेरी आँखें---

मेरे दिल का आईना नही हैं,


झूठ में पारंगत हैं,

मेरे अंतस में सिर्फ---

शून्य है,

हाँ! मैं रिक्त हूँ,

तन को छुए जाने का अहसास है,

गले लगते हुए,

कोई बिल्कुल पास है,


ये लंबी बहसें,

ये ज्ञान की बातें,

ये जुबाँ---,जो मन की बात,

निसंकोच बोल आती है,

किंतु ये शरीर के अंदर स्थित,

दिल की, दिमाग की बात है,


ज्यों थमा दिया गया हो, एक पात्र,

मुट्ठी में-----

उसी के साथ उठती हूँ,

सोती हूँ--

उसी को जी रही हूँ,


और ये पात्र---, ये दिल दिमाग--

ये भी ,

तन के दावानल में भस्म होते ही,

गायब अब हो जाएंगे,

एक अदृश्य सी वायु,

हवा में तैर जाएगी,


शून्य से आई थी,

शून्य में समा जाएगी,

हाँ आज तन , मन,

दोनो से मुक्त हूँ,

अब मैं सिर्फ रिक्त हूँ।


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