रिक्त
रिक्त
इतनी भीड़ में,
इतनी बातों के बीच,
इतनी मुलाकातों के बीच,
मेरा मैं--
सिर्फ सतह पर ही रहता है,
बिना सोच बोलती हूँ,
भावनाहीन सी सुनती हूँ,
यन्त्रवत खिलखिलाती हूँ,
बिन सोचे---
तुम्हारे सीने से लग जाती हूँ,
तुम्हारा प्यार, तुम्हारा चुम्बन,
तुम्हारा उपहार,
रूह तक नही पहुंच पाता है,
मेरे अंदर मत झांको,
मेरी आँखें---
मेरे दिल का आईना नही हैं,
झूठ में पारंगत हैं,
मेरे अंतस में सिर्फ---
शून्य है,
हाँ! मैं रिक्त हूँ,
तन को छुए जाने का अहसास है,
गले लगते हुए,
कोई बिल्कुल पास है,
ये लंबी बहसें,
ये ज्ञान की बातें,
ये जुबाँ---,जो मन की बात,
निसंकोच बोल आती है,
किंतु ये शरीर के अंदर स्थित,
दिल की, दिमाग की बात है,
ज्यों थमा दिया गया हो, एक पात्र,
मुट्ठी में-----
उसी के साथ उठती हूँ,
सोती हूँ--
उसी को जी रही हूँ,
और ये पात्र---, ये दिल दिमाग--
ये भी ,
तन के दावानल में भस्म होते ही,
गायब अब हो जाएंगे,
एक अदृश्य सी वायु,
हवा में तैर जाएगी,
शून्य से आई थी,
शून्य में समा जाएगी,
हाँ आज तन , मन,
दोनो से मुक्त हूँ,
अब मैं सिर्फ रिक्त हूँ।