निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

Tragedy

4.0  

निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

Tragedy

रात

रात

1 min
282


कितनी दफा गुजरी है रात पलकों तले, 

पर नींद को तेरे आग़ोश की लत है! 


अनगिन है गुजरा ये पवन लबों को छू कर, 

तेरे बिन ये सरगम मानों मौन व्रत है! 


मशगूल रह गए हम दोनों अहम भाव में, 

निःश्वार्थ तकते अब एक दूजे को लिखे जो खत हैं, 


कभी जो रथ पर सवार सा गतिमान वक्त था, 

अब मानो काटे नहीं कटता दूभर सा वक़्त है, 


हवा के संग रंग भरते तितलियों का था आँगन जहाँ, 

अब बेरंग कंक्रीट पे जालों की बस एक परत है, 


अजीब है ये स्वछंद साँसों का घुट घुट जीना, 

सामने मेरे जबकि एक खुला सा छत है ! 


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy