रात की ख़ामोशी
रात की ख़ामोशी
रात की ख़ामोशी कभी कभी
डसती है कुछ इस कदर
जैसे कोई रह रह कर
चुभा रहा हो हृदय में खंजर
भय का विशालकाय साम्राज्य
बनाती है रातों की खामोशी
क्या बीती है इस पर कौन जाने?
कोई तो होगा ही इसका दोषी
जो सिसकियां भी भर ना पाई
कि कहीं कोई जाग ना जाए
जो सबके बारे में सोचे
कौन सोचे बैठी है क्या क्या गवाए?
वो काली है डरावनी भी है
इससे कोई बच ना पाए
इस रात की ख़ामोशी को साहब
कोई कभी समझ ना पाए।