दर्पण
दर्पण
दर्पण देखा जब भी
मिली मुझे खुद में कमी
ना था जिसका एहसास
हो गया था वही
मेरी इन आंखों में
थे सपने नादान से
चली हवा तो आंखों में
धूल पड़ी अंजान सी
दर्पण में जब फिर देखा तो
सबकुछ ही था ख़त्म दिखा
सारे सपने टूट चुके थे
अपने भी सब थे रूठ गए
क्या ही होता बयां वो सब
जब मेरा सब मुझसे छूट गया
हाथ भी थे खाली से
हर सपना था टूटा पड़ा
दर्पण ने मुझे फिर पुकारा
मैं हिम्मत से गई सामने
दर्पण ने कहा मुझसे
देख फिर चुन नए रस्ते
मंज़िल तेरी राह देख रही
रास्ते भी हैं इंतज़ार में
तू एक कदम तो बढ़ा
है मंज़िल की पुकार ये
दर्पण ने फिर सिखा दिया
हंस कर चलना सिखा दिया
मैं हो गई थी बावली सी
मुझको जीना सिखा दिया
मेरे अंदर की बातों को
दर्पण ने मुझसे मिला दिया
हां मैं खुश हूं दर्पण ने
मुझको जीना सिखा दिया।