अधसुलगी एक लकड़ी
अधसुलगी एक लकड़ी
लोग चले जाते हैं लेकिन
उनकी याद नहीं जाती है।
लाख भुलाया पर आंखों में
उनकी तस्वीर उतर आती है
अपने छूटे, दिल के सारे सपने टूटे
यादें खंड खंड हो टूटी
अधसुलगी जैसे एक लकड़ी
निर्जन में जलती सी छूटी।
न उमंग है न तरंग है ,जीवन
जैसे नदी सूखती का पानी
नहीं मानता है ये दिल जिद्दी
फिर भी करता है नादानी।
बस जाता है उजड़ा गुलशन
खिलते हैं फिर से मधुबन।
उजड़ा इश्क नहीं बस पाता
जीवन की ये कैसी उलझन।
आधे लकवा मारे तन को
अब सारे जीवन ढोना होगा।
दिल का दर्पण टूट गया है
इन किरचों पर ही सोना होगा।