अपराधबोध
अपराधबोध
आत्मा दुत्कारती मुझे
हृदय ये रोता है,
जब मुझसे जुड़ा
कोई अस्तित्व खोता है।
जाने से उसके पहचान मेरी
आधी हो गयी,
अंतरात्मा मेरी खुद की ही
नज़रों में अपराधी हो गयी।
वक्त की दहलीज पर
आज भी उसकी तलाश है,
ना मिला कोई पता,
न कोई उम्मीद
ना मिल पाने का ख्याल
उससे बनाता हर पल
मन को निराश है।
हर शाम की बारिश जैसे
उसके पास होने का इकरार करती है,
आज भी आंखें सिराहने
पर उसका इन्तज़ार
करती हैं।
जिंदगी उसकी जिंदगी में ही
जिंदगी को तलाश रही,
तन्हाई उसकी उसके ही
अक्स में उसके ही अक्स को तराश रही।
खामोशी से मानो कोई गहरा रिश्ता हो,
छुपाए गम जैसे कोई फरिश्ता हो।
पता नहीं क्यू उसके दर्द में
खुद के दर्द को महसुस करता हूँ,
लेकिन हँसाने को उसे खुद के होंठो भी
मुस्कुराहट से मशरूफ करता हूँ।
वक्त और किस्मत का ये फलसफा
हर पल आंखें भिगोता है,
जब मुझसे जुड़ा कोई अस्तित्व खोता है।

