ग़ज़ल
ग़ज़ल
पत्थरों से ठोकरें खा कर संभल जाता हूं मैं।
अपनो से ठोकर लगे तो टूट फिर जाता हूं मैं।
गलतियां मुझसे भी होती है यह तो माना मैंने।
नजर तुम जो फेर लो , तो बिखर जाता हूं मैं।
चांद हो तुम ,है तुम्हारे वास्ते कितने सितारे ।
मैं तो हूं टूटा सितारा यह सोच डर जाता हूं मैं।
तुम गगन हो मैं धरा हर पल को हो तुम सामने।
पर मिलन होना कहां ये सोच मर जाता हूं मैं।
लोग कहते हैं मुकद्दर कर्म से तुम खुद लिखो।
लाख कोशिश की मगर मंजिल नहीं पाता हूं मैं।
शिवा
भोपाल
