क़त्ल-ए-मोहब्बत
क़त्ल-ए-मोहब्बत
बादशाह-ए-इश्क़ के सज़दे में हमने सर झुकाया है,
राह का पत्थर समझ कर हमें इस कदर ठुकराया है।
तीर आँखों से चलाकर दिल के पार किया है उसने,
क़त्ल-ए-मोहब्बत का इल्ज़ाम हम पर ही लगाया है।
हम गर ग़म भी सुनाए उन्हें तो लगता है लतीफ़ा,
ग़म-ए-इश्क़ का फ़साना उसने महफ़िल में सुनाया है।
अपनी मोहब्बत की इतनी नुमाईश क्या कम थी?
कि मेरे ग़म को भी उसने सार-ए-आम बिकवाया है।
आना 'ज़ोया' के पास जब खाली दिल रंज से भर जाए,
हमनें तो हरदम उसके ज़ख़्म पर मरहम ही लगाया है।
27th May/ Poem 22

