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Kavita Sharrma

Abstract

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Kavita Sharrma

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मन का फेर

मन का फेर

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 मन का ही तो फेर है 

अपना पराया कुछ भी नहीं

मिला जो भी मिला यहीं

फिर मेरा है यह अहं क्यों है

बस मन का फेर होने की देर है

जिस दिन से नींद से जागेगा

सत्य को पहचानेगा

माया से फिर भागेगा

मन का ही सारा खेल है 

कर में माला फेर के

ईश्वर मिलेगा नहीं

अहं को जब त्यागेगा

मन मंदिर में ही उन्हें पा लेगा 



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