प्यार और अपनापन
प्यार और अपनापन
लिख रही हूँ तो ये मत सोचो की अपनी बदहाली लिख रही हूँ,
लिखना तो बस बहाना है,
कुछ अपनी सोच और कुछ आपका ख़याल लिख रही हूँ,
दुआ माँग के बैठी हूँ की ये मंजर संवर जाए,
कुछ हाले दिल तो कुछ हक़ीक़त लिख रही हूँ,
यूँ छिड़ी है जंग की जैसे कोहराम सी मचा दी है किसी ने,
यहाँ खुद को सब सही बनाएँ बैठे हैं,
कुछ उस सही होने की ग़ुरूर को झांक रही हूँ।
ग़लत है जो ज़रूरी नहीं की हर बात में ग़लत है,
क्या सही जो एक बार वो हर बार पाक साफ़ है...
नियत से लिपटी कुछ मर्ज़ी, मजबूरी तो कुछ मिज़ाज
परख रही हूँ।
सही ग़लत से परे एक अलग सी दुनिया देख रही हूँ
मैं लिख रही हूँ।
दुनिया इतनी बुरी भी नहीं की लड़ने वाली सीरत बनाये बैठे,
अच्छाई और सचाई से भरी खूबसूरत किनारे देख रही हूँ
उस मोहब्बत की ज़ुबानी लिख रही हूँ
सोच सही तो सब अपने अपने से लगे,
ग़लत हो सोच तो सब अपने भी ग़लत लगते
भूल गए इस मिट्टी की कहानी बता रही हूँ
बिगड़ ना ना दो ये एहतियात जता रही हूँ,
कुछ नहीं मोहब्बत भरे अपने और अपनापन
वाली खूबसूरत भारत बनाने की गुज़ारिश कर रही हूँ।
