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Mani Aggarwal

Inspirational

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Mani Aggarwal

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आत्मज्ञान

आत्मज्ञान

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हाँ ! नहीं अनुकूल कुछ भी, 

किस कदर दुश्वारियाँ हैं।

हर तरफ है बस झमेले,

हर तरफ लाचारियाँ हैं।


जिम्मेदारियों में दब कर,

ख्वाहिशें दम तोड़ती हैं।

सुकून मेरा लूट मुझसे,

बेबसी से जोड़ती हैं।


खिन्न मन से यों ही सड़कों-

 पर भटकता जा रहा था।

दुनियाँ में सबसे ज्यादा,

खुद को बेबस पा रहा था।


काश ! मिल जाये कहीं से,

मुझको जादू की छड़ी तो।

पूर्ण अभिलाषा सभी हो,

हर तरफ बिखरी खुशी हो।


फिर अचानक मैं ठिठक कर,

थाम पग जड़वत खड़ा था।

सामने का दृश्य मानों,

उपहास मेरा कर रहा था।


ईंटों की चौकी बना कर, 

सर्द स्याह रात में।

वो युगल बिन साधनों भी,

कितना खुश सा लग रहा था।

 

टूटा सा भी घर नहीं,

कपड़े भी बस तन ढ़कने भर।

पर नहीं अवसाद कोई,

चेहरे थे उनके निष्फिकर।


कुछ व्यर्थ से अग्नि जला,

अप्राप्य का दुःख त्याग कर।

उस पल की खुशियाँ जी रहे थे,

बैठ कर फुटपाथ पर।


आत्मग्लानि से भरा मैं,

मनन उस पल कर रहा।

और प्राप्य जो मुझे था,

उसकी तुलना कर रहा।


हर पल अधिक की चाह में,

खो दी खुशी सब आज की।

सुख तो हृदय में ही छुपा,

ये बात समझा था राज की।


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