धीरज।
धीरज।
डर लगता प्रभु भवसागर से, जिसने सब कुछ मेरा छीना।
माया रूपी काम, क्रोध ने, कर दिया मुश्किल मेरा जीना।।
तृष्णा बन बैठी मेरी सौतन, चाहत ने कहीं का न मुझको छोड़ा।
ममता लागी संचय करने में, तुम से सदा ही मुख मैंने मोड़ा।।
पाप-पुण्य के चक्कर में, अब तक तुमको समझ न पाया।
दोहरा चरित्र सदा अपनाया, अंतर मन की सुन न पाया।।
असली दौलत पाने की खातिर, प्रभु मैंने तुमको नहीं पुकारा।
यहां की दौलत खाक बनेगी, दे दो मुझको तुम अपना सहारा।।
कृपा की भीख तुमसे ही मॉंगू, तुम से सदा ही लौ लगाऊँ।
"नीरज" "धीरज" रख नहीं पाता, किस विधि तुममें मिल मैं पाऊँ।।