वंश
वंश
वंश बस संस्कारों का यूँ ही चलता रहे,
खुशियों का अथाह सागर मिलता रहे।
भेदभाव पुत्र पुत्री का अब न रहे,
प्रेम से हर बचपन बस सिंचता रहे।
नव निर्माण परिवारशाला में होता रहे,
संतान का सर्वांगीण विकास होता रहे।
वंश वसुधा का नव निर्माण से है,
कुछ त्याग,प्रेम और उत्थान से है।
आज बस वश वसुधा का बढ़ाना है,
हर ओर हरितमा से ही सजाना है।
एक एक वृक्ष अब उपजाना है,
कर लालन पालन उसे सजाना है।
केवल नही निज परिवार वश है,
सम्पूर्ण वसुधा ,हर जीव यहाँ संग है।
अब बस वसुधैव कुटुम्बकम अपनाना है,
धरा का वश ऐसे सजाना है।।