ए राही
ए राही
मानव जीवन है अलबेला,
है हर इक इन्सान अकेला,
चाहे नित नवीन मंजिल को,
बीतती नहीं दुख की बेलाI
भास्कर नव किरणें फैलाता है,
भँवरा फूलों पर मंडराता है,
कुदरत का मधुरिम सौन्दर्य,
जीवन उपवन महकाता हैI
मधुरिम रिश्तों की अभिलाषा,
मन में जगाती नई आशा,
डग भरता राही जल्दी से,
छा ना जाये कहीं निराशाI
सुख वैभव इकट्ठे करता है,
आकाश उड़ानें भरता है,
औरों को सुख देने खातिर,
हरपल विपदाएँ सहता हैI
पत्तों की मन्द सरसराहट,
पंछियों की सुन चहचहाहट,
बीती बातों की स्मृतियों से,
आए अधर पर मुस्कुराहटI
