दावत
दावत
एक दिन देखा गोद में धरती की
माँगनआरों के बाल दाल को यूँ ही
जो खोए थे उड़ाने में दावत को
बड़ी अजीब सी थी यह दावत।
पुराने चीथड़ों से थे
सजे शामियाने उनके
छोटे बड़े पेड़ों पर डाल
लाल नीली पीली हरी।
बीन पन्नियों से अपना घर
था सजाया बड़ी शान से
तुोरण थे पुरानी लीरों के बने
पथ सजा सुन्दर कल्पनाओं से।
खुद सजे थे आधे ढके
दे आधे नंगे बदन उनके
रेशमी लहंगे और सुन्दर चुनरी
की जगह ओढ़ने थे फटे उनके।
धीरे धीरे दावत हुई शुरु उनकी
तोड़ पत्ते थालियां गई बनाई उनकी
गोल मिट्टी के थे लड्डू परोसे
गीली मिट्टी का था स्वाद हलवा
पूरी, रोटी बनी हरे गोल पत्तों की।
हाँ जी अब दावत शुरू हुई
उनकी, कुछ इस अंदाज से
बच्च
ों ने चटकारे लेने से
भर पेट खाने तक
हूबहू किया अभिनय ऐसे।
पत्तों को बार बार पोंछता हो
खा कर कोई ले पूरा स्वाद जैसे
खाना तो खाना जैसे,
अपनी चाट जाना चाहता हो
उंगलियाँ सभी।
इस दावत को देख आँखें मेरी
भर आती हैं बरबस
सोचती हूँ है मेरे मालिक
ये भी बन्दे तेरे अपने हैं
उनके थोड़े से सपने हैं।
कभी एक तो दावत
इनको खिलाना तू
हो सारे तो न सही पर
कुछ तो अरमान कर पूरे कभी।
ये भी जन्मे हैं दुनिया में तेरी
कुछ सौगातें तो डाल झोली में इनकी
कौन जाने बीनेंगे शूल राहों के किनकी
राहें करेंगे रोशन दुआओं से अपनी।