पुकार वेदनाओं की
पुकार वेदनाओं की
कर न शिथिल कमान तरकस की शत्रु अभी खड़ा है
प्रत्यंचा पर चढ़ा शर को ये युद्ध की अभी बेला है।
किसने कहा शांति से बोलो करो गर्जन सिंह की दहाड़ में
फिर कहा किसने मत वेधो पुष्कर धरुण से हृदय सीर को
है खड़ा शत्रु द्वार पर अपने कैसे धारण करें कुंकुम शेखर को।
शत्रु की छाती चीरकर शोणित लोहू का केसर सजायेगें
भाल पर अपने रुधिर का कुंकुम तिलक हम लगायेगें।
तिलक कैसे लगाऊँ? हृदय में पीड़ भरी वेदनाओं से
कैसे सुनाऊँ और किसको? उत्थान सनातन के गान के।
तड़प रही संस्कृति और संस्कार बेड़ी पड़ी पाँवों में
देख रही सर-हिमाला लुटते अपने हिन्दुस्तान को।
चमक की रंगीनियों के हिलोरों में उतरने वालों
ओ ख्याब शानों-शौकत के सजाने वालों।
ओ अपने कद को ताड़ से बनाने वालों
अखिल राष्ट्र को हलाहल रूपी विष पिलाने वालों।
भरत खंड के कोने-कोने में, सुलग रही आग है
विचारों की चिंगारी धधक रही, मरघट बना संसार है
अखिल जगत जहाँ पहुँच रहा, तम से घिरा आसमान है
तिमिर ने घेरा हर कुनबे को, हर कुनबा बीमार है।