पृथ्वी का बिछौना
पृथ्वी का बिछौना


सुबहा उठता,
बिना नाश्ते के चल देता,
दिहाड़ी मज़दूरी ढूंढता,
अगर मिल जाती,
तो रात के खाने का
इंतज़ाम हो जाता,
अन्यथा भूखे पेट सो जाता।
तन पे चीथड़े लपेटे हुए,
बहुत मुश्किल से अंगों
को ढांपें हुए,
मुद्दत हो गई नहाए हुए,
हर कोई देखकर मुंह
फेर लेता,
ग़रीब बेचारा ऐसा होता।
कभी खाना न मिले,
तो पानी पीके ही सो जाता,
सर पे आसमान की छत,
और पृथ्वी का बिछौना होता,
ग़रीब बेचारा ऐसा होता।
सर्दी, गर्मी कटते ऐसे,
हर किसी का मोहताज हो जाता,
कभी कभी पुलिस वाला पकड़ ले जाता,
राजनीतिज्ञ भी झूठा वादा कर जाता,
कोई उसकी वेदना नहीं सुनता,
ग़रीब बेचारा ऐसा होता।