प्रेमगीत- प्रीत पूरी कौन कहता
प्रेमगीत- प्रीत पूरी कौन कहता
बिन समर्पण के बताओ
प्रीत पूरी कौन कहता ।।
नैन में प्रीतम बसाए
स्वयं को बिसरा दिया था
मिलन की जब आस टूटी
नेह तक बिखरा दिया था
सुर्ख से सन्देश के बिन
विरह को फिर कौन दहता ।।
बिन समर्पण के बताओ
प्रीत पूरी कौन कहता ।।
लगते है दोनों सम से
भेद को दोनों भुलाये
कौन प्रीतम कौन हूँ मैं
भ्रमित कर मन को घुमाये
रात सारी गिने तारे
कहीं भीतर मौन बसता ।।
बिन समर्पण के बताओ
प्रीत पूरी कौन कहता ।।
प्रेम अमृत बना कभी विष
एक से दोनों दिखे जब
प्रेम अन्तस् की भिगोता
समझ से बाहर बने तब
समंदर जाती नदी में
डूबता मृगछौन बहता
बिन समर्पण के बताओ
प्रीत पूरी कौन कहता ।।

