पराये घर की
पराये घर की
अलसाई आंखों में कसक एक बची हुई
उफ्फ थोड़ी नींद और होती दिल चाहता
सुबह की भाग दौड़ की चिंता ना होती
काश ! कुछ बातें बिन कहे कोई समझ जाता
अलार्म की आवाज़ सिर्फ मेरे लिए बनी हुई
हाय! बंद कर कोई थोड़ा लेट ही उठाता
चिंता ना करो, बच्चों को स्कूल मैंने भेज दिया
काश! तुमने कहते बस एक दिन ऐसा आता
हाँ मानतीं हूं मैं स्त्री हूँ ये है मेरी जिम्मेदारी
बचपन से ही माँ को देख देख की थी तैयारी
कुछ कहूँ तो आलसी का तमगा है मिल जाता
काश! थोड़ा सुबह का काम हम में बंट जाता
जाने दो अब क्या कहना रोज का रोना धोना
हाँ पर सूना रह जाता है हृदय का एक कोना
जरूरत ही ना पड़ती ये विषय ना आता
पराये घर की लड़की कह कोई ना जाता।