हिन्दी की कथा
हिन्दी की कथा
अपनी हिन्दी की कथा
अपनी भाषा की व्यथा
आज यहाँ बताती हूं
चलो मैं हिन्दी में ही,
हिन्दी की कहानी सुनाती हूँ।
कहने को कुछ हजार वर्ष पुराना
हिन्दी का स्वर्णिम इतिहास है
पर जिसकी जड़ें संस्कृत से जुड़ी
वैदिक काल से ही उसपर हमें विश्वास है।
नाम बदलते रहे, इतिहास बदलते रहे
कभी 'पुरानी' तो कभी 'नई' हिन्दी बोल
हिन्दी का प्रादुर्भाव बदलते रहे।
प्रकृति की भाषा प्राकृत
हिन्दी उसकी अंतिम अपभ्रंश अवतार है
बाहरवालों ने दिया जो नाम यह
वह नाम भी हिंदी को स्वीकार है।
यह तो त्याग की भाषा है
वक्ता को स्वच्छंद रखती है
तभी तो समय समय पर
अन्य भाषाओं के नीचे दबी सी दिखती है।
इसे चाह नहीं थी वर्चस्व की
तभी तो संघर्ष करती रही
कभी मुग़लों के अरबी - फारसी
तो कभी अंग्रेजों के अंग्रेजी से लड़ती रही।
वह क्या करती? वह किससे लड़ती?
साथ बस थे कुछ साहसी साहित्यकार
कहने को हाथ में मात्र कलम ही ठहरी
शत्रुओं के लिए समझो तलवार लिए प्रहरी
नहीं छोड़ा प्रयत्न उन्होंने
कितने ही दबाव उनपर डाले जाते थे
कैसे छोड़ देते वो साथ उस भाषा का
जिसका हाथ पकड़ वह लोग
ज़न-ज़न तक अपनी भावना पहुंचाते थे।
हिन्दुस्तान की धरती को बचाने के लिए
अंग्रेजों से जो लड़ गए
भाषा और धर्म के नाम पर ही
जो दो भागों में बंट गए
लेकिन क्या पाया दोनों ही देशों ने?
आज आंकड़े उठा कर देख लो
अपनी भाषा छोड़ छाड़
लगभग अंग्रेजी भाषी बन गए।
फ़िर भी उम्मीद अभी बाकी है
कि हृदय से लोग हिन्दी के अभिलाषी है
अस्सी प्रतिशत खोज हिन्दी में करते लोग
हाँ गूगल इसका साक्षी है!
अर्थात!
इतना सब कुछ सह कर भी
हिन्दी दिलों तक जाती है
राजभाषा कहो या मातृभाषा
हिन्दी सबसे ज्यादा बोली जाती है।
अपनी भाषा को सम्भाले रखने में
मैं भी जुड़ी हूँ, हाँ मुझे हिन्दी होने पर गर्व है
जिस भाषा में रोती हूँ, हँसती हूं
वह हिन्दी दिवस मेरे लिए तो पर्व है।