पिता बनाम ATM
पिता बनाम ATM
पिता जो भी करते हैं,
बच्चे उसे समझ नहीं पाते हैं
शायद इसीलिए पिता उन्हें
बस ATM नजर आते हैं।
एक बेफिक्र, आवारा सा, मनमौजी लड़का,
पिता बनते ही जाने कैसे बदल जाता है
सारे एशो-आराम छोड़ अचानक से
जिम्मेदार इन्सान बन जाता है।
पहले माँ, फिर पत्नी को नखरे दिखाने वाला
अब बच्चों के नखरे उठाता है
उनकी एक फरमाइश पर
पूरा बाजार खरीद लाता है।
तभी तो बच्चों को वह बस ATM नजर आता है।
जिसने कभी दोस्तों से भी
न पंजा लड़ाया हो
बच्चों के लिए न जाने कैसे
शेर बन जाता है,
ढाल बन कर उन्हें,
हर मुश्किल से बचाता है
फिर भी बच्चों को तो पिता बस ATM नजर आता है
बच्चों की बढ़ती जरूरतें पूरी करने को
ऑफिस के बाद ओवर टाइम करके आता है
फिर भी देर से आने का ताना सुनता है
और थकान भुला के
बच्चों को पीठ पर घुमाता है
न जाने क्यों सबको वह इन्सान नहीं,
बस ATM नजर आता है।
सबकी इच्छायें पूरी करते करते
वह ऐसा खो जाता है,
उसे भी कुछ चाहिये था
यह भूल ही जाता है।
शायद धीरे धीरे वह ATM ही बन जाता है।
बड़ी होती बेटी का दहेज जुटाना है,
बेटे को भी तो अच्छे कॉलेज में पढ़ाना है
इसी उधेड़-बुन में कब बाल सफेद हुए
कब कमर झुक गयी
वह समझ भी न पाता है
बच्चों को तो अब भी वह
बस ATM ही नजर आता है।
जिम्मेदारियां पूरी करते करते
एक हट्टा-कट्टा नौजवान
बूढ़ा हो जाता है,
पता नहीं क्यों उसका त्याग फिर भी
माँ से कम ही नजर आता है।
धीरे धीरे ये ATM खाली होता जाता है
और बच्चों को वही पिता
अब बोझ नजर आता है
न जाने क्यों यह पुराना ATM
अब बोझ नजर आता है।